तेरा लहज़ा बदल गया इतने ही दिनों में ....
*सॉंसों में जिसके बसे, दशरथनंदन राम (पॉंच दोहे)*
दिलाओ याद मत अब मुझको, गुजरा मेरा अतीत तुम
लोगों की मजबूरी नहीं समझ सकते
उठाये जो तूने जख्म पहले उन्हें अब मात देना चाहता हूं,
रिश्तों से अब स्वार्थ की गंध आने लगी है
माँ आजा ना - आजा ना आंगन मेरी
अनुपस्थित रहने का सौंदर्य :
कुछ दर्द झलकते आँखों में,