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3 Sep 2023 · 5 min read

हम्मीर देव चौहान

हम्मीर देव चौहान रणथम्भौर के अंतिम चौहान राजा थे। उन्हें मुसलिम कालक्रमों और शाब्दिक साहित्य में हमीर देव के रूप में भी जाना जाता है। उन्होंने रणथम्भौर पर 1282 से 1301 तक राज्य किया। वे रणथम्भौर के सबसे महान् शासकों में सम्मिलित हैं। हम्मीर देव का कालजयी शासन चौहान काल का अमर वीरगाथा इतिहास माना जाता है। हम्मीर देव चौहान को चौहान काल का ‘कर्ण’ भी कहा जाता है। पृथ्वीराज चौहान के बाद इनका ही नाम भारतीय इतिहास में अपने हठ के कारण अत्यंत महत्त्व रखता है। राजस्थान के रणथम्भौर साम्राज्य का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं प्रतिभासंपन्न शासक हम्मीर देव को ही माना जाता है। इस शासक को चौहान वंश का उदित नक्षत्र कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। डॉ. हरविलास शारदा के अनुसार हम्मीर देव जैत्रसिंह का प्रथम पुत्र था और इनके दो भाई थे, जिनके नाम सुरताना देव व वीरमा देव थे। डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार हम्मीर देव जैत्रसिंह का तीसरा पुत्र था, वहीं गोपीनाथ शर्मा के अनुसार सभी पुत्रों में योग्यतम होने के कारण जैत्रसिंह को हम्मीर देव अत्यंत प्रिय था। हम्मीर देव की माता का नाम हीरा देवी था। यह महाराजा जेत्रसिंह चौहान के लाडले एवं वीर बेटे थे। राव हम्मीर देव चौहान रणथम्भौर के शासक थे। ये पृथ्वीराज चौहान के वंशज थे। ये इतिहास में ‘हठी हम्मीर’ के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। जब हम्मीर वि.सं. 1339 (ई.सं. 1282 ) में रणथम्भौर (रणतभँवर) के शासक बने, तब रणथम्भौर के इतिहास का एक नया अध्याय प्रारंभ होता है। हम्मीर देव रणथम्भौर के चौहान वंश के सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्त्वपूर्ण शासक थे। इन्होंने अपने बाहुबल से विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था।

जलालुद्दीन खिलजी ने वि.सं. 1347 (ई. सं. 1290) में रणथम्भौर पर आक्रमण किया। सबसे पहले उसने छाणगढ़ (झाँझन) पर आक्रमण किया। मुसलिम सेना ने कड़े प्रतिरोध के बाद इस दुर्ग पर अधिकार किया। तत्पश्चात् मुसलिम सेना रणथम्भौर पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ी। उसने दुर्ग पर अधिकार करने के लिए आक्रमण किया, लेकिन हम्मीर देव के नेतृत्व में चौहान वीरों ने सुल्तान को इतनी हानि पहुँचाई कि उसे विवश होकर वापस दिल्ली लौट जाना पड़ा। छाणगढ़ पर भी चौहानों ने दुबारा अधिकार कर लिया। इस आक्रमण के दो वर्ष पश्चात् मुसलिम सेना ने रणथम्भौर पर दुबारा आक्रमण किया, लेकिन वे इस बार भी पराजित होकर दिल्ली वापस लौट गए। वि.सं. 1353 (ई.स. 1296) में सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या करके अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान बना। वह संपूर्ण भारत को अपने शासन के अंतर्गत लाने की आकांक्षा रखता था। इस समय तक हम्मीर के नेतृत्व में रणथम्भौर के चौहानों ने अपनी शक्ति को काफी सुदृढ़ बना लिया और राजस्थान के विस्तृत भूभाग पर अपना शासन स्थापित कर लिया था। अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के निकट चौहानों की बढ़ती हुई शक्ति को नहीं देखना चाहता था, इसलिए संघर्ष होना अवश्यंभावी था। ई. सं. 1299 में अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने गुजरात पर आक्रमण किया। वहाँ से उसे लूट का बहुत सा धन मिला था। मार्ग में लूट के धन के बँटवारे को लेकर कुछ सेनानायकों ने विद्रोह कर दिया तथा वे विद्रोही सेनानायक राव हम्मीरदेव की शरण में रणथम्भौर चले गए। ये सेनानायक मीर मुहम्मद शाह और कामरू थे। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने इन विद्रोहियों को सौंप देने की माँग राव हम्मीर से की, लेकिन हम्मीर ने उसकी यह माँग ठुकरा दी। क्षत्रिय धर्म के सिद्धांतों का पालन करते हुए राव हम्मीर ने शरण में आए हुए सैनिकों को नहीं लौटाया | शरण में आए हुए की रक्षा करना उन्होंने अपना कर्त्तव्य समझा। इस बात पर क्रोधित होकर अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर पर आक्रमण करने का निश्चय किया। अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने सर्वप्रथम छाणगढ़ पर आक्रमण किया। उनका यहाँ आसानी से अधिकार हो गया। छाणगढ़ पर मुसलमानों ने अधिकार कर लिया है, यह समाचार सुनकर हम्मीर ने रणथम्भौर से सेना भेजी। चौहान सेना ने मुसलिम सैनिकों को परास्त कर दिया। मुसलिम सेना पराजित होकर भाग गई, चौहानों ने उनका लूटा हुआ धन व अस्त्र-शस्त्र लूट लिया । वि.सं. 1358 (ई.स. 1301) में अलाउद्दीन खिलजी ने दुबारा चौहानों पर आक्रमण किया। छाणगढ़ में दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में हम्मीर स्वयं युद्ध में नहीं गया था। वीर चौहानों ने वीरतापूर्वक युद्ध किया, लेकिन विशाल मुसलिम सेना के सामने वे कब तक टिकते। अंत में सुल्तान का छाणगढ़ पर अधिकार हो गया। तत्पश्चात् मुसलिम सेना रणथम्भौर की तरफ बढ़ने लगी। तुर्की सेनानायकों ने हम्मीर देव के पास सूचना भिजवाई कि हमें हमारे विद्रोहियों को सौंप दो, जिनको आपने शरण दे रखी है। हमारी सेना वापस दिल्ली लौट जाएगी, लेकिन हम्मीर अपने वचन पर दृढ़ थे। उसने शरणागतों को सौंपने अथवा अपने राज्य से निर्वासित करने से स्पष्ट मना कर दिया। तुर्की सेना ने रणथम्भौर पर घेरा डाल दिया। तुर्की सेना ने नसरत खाँ और उलुग खाँ के नेतृत्व में रणथम्भौर पर आक्रमण किया। दुर्ग बहुत ऊँचे पहाड़ पर होने के कारण शत्रु का वहाँ पहुँचना बहुत कठिन था। मुसलिम सेना ने घेरा कड़ा करते हुए आक्रमण किया, लेकिन दुर्ग-रक्षक उन पर पत्थरों व बाणों की बौछार करते रहे, जिससे उनकी सेना का काफी नुकसान होता था। मुसलिम सेना का इस प्रकार बहुत दिनों तक घेरा चलता रहा, लेकिन उनका रणथम्भौर पर अधिकार नहीं हो सका।

अलाउद्दीन ने राव हम्मीर के पास दुबारा दूत भेजा कि हमें विद्रोही सैनिकों को सौंप दो, हमारी सेना वापस दिल्ली लौट जाएगी, लेकिन हम्मीर हठपूर्वक अपने वचन पर दृढ़ था। बहुत दिनों तक मुसलिम सेना का घेरा चलता रहा और चौहान सेना मुकाबला करती रही। अलाउद्दीन को रणथम्भौर पर अधिकार करना मुश्किल लग रहा था। उसने छल-कपट का सहारा लिया। हम्मीर के पास संधि का प्रस्ताव भेजा, जिनको पाकर हम्मीर ने अपने आदमी सुल्तान के पास भेजे। उन आदमियों में एक सुर्जन कोठ्यारी (रसद आदि की व्यवस्था करनेवाला) व कुछ सेनानायक थे। अलाउद्दीन ने उनको लोभ-लालच देकर अपनी तरफ मिलाने का प्रयास किया। इससे इनमें से गुप्त रूप से कुछ लोग सुल्तान की ओर हो गए। दुर्ग का घेरा बहुत दिनों से चल रहा था, जिससे दुर्ग में रसद आदि की कमी हो गई। दुर्गवालों ने अब अंतिम निर्णायक युद्ध का विचार किया। राजपूतों ने केशरिया वस्त्र धारण करके शाका करने का निश्चय किया। राजपूत सेना ने दुर्ग के दरवाजे खोल दिए। भीषण युद्ध करना प्रारंभ किया। दोनों पक्षों में आमने-सामने का युद्ध था । एक ओर संख्या बल में बहुत कम राजपूत थे तो दूसरी ओर सुल्तान की कई गुना बड़ी सेना, जिनके पास पर्याप्त युद्धादि की सामग्री एवं रसद थी। राजपूतों के पराक्रम के सामने मुसलमान सैनिक टिक नहीं सके तथा उनमें भगदड़ मच गई। भागते हुए मुसलमान सैनिकों के झंडे राजपूतों ने छीन लिए व वापस राजपूत सेना दुर्ग की ओर लौट पड़ी। दुर्ग पर से रानियों ने मुसलमानों के झंडों को दुर्ग की ओर आते देखकर समझा कि राजपूत हार गए, अतः उन्होंने जौहर कर अपने आपको अग्नि को समर्पित कर दिया। किले में प्रवेश करने पर जौहर की लपटों को देखकर हम्मीर को अपनी भूल का ज्ञान हुआ। उसने प्रायश्चित करने हेतु किले में स्थित शिव मंदिर पर अपना मस्तक काटकर शंकर भगवान् के शिवलिंग पर चढ़ा दिया। अलाउद्दीन को जब इस घटना का पता चला तो उसने लौटकर दुर्ग पर कब्जा कर लिया। हम्मीर अपने वचन से पीछे नहीं हटा और शरणार्थियों को नहीं लौटाया, चाहे इसके लिए उसे अपने पूरे परिवार की बलि ही क्यों न देनी पड़ी। इसलिए कहा गया है

सिंह सवन सत्पुरुष वचन, कदली फलत इक बार।
तिरया तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार ॥

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