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8 Jan 2023 · 3 min read

पराया दर्द

#स्नेह काव्य निर्झर मंच
#क्रमांक _४८८
# दिनांक _०३/०१/२०२५ से ०४/०१/२०२५
#विधा _लघुकथा
#मुहावरा _पराया दर्द
# स्वरचित _सुशील कुमार सिंह “प्रभात”
सोनपुर, सारण, बिहार
# मोबाइल नंबर _७६७७०६०३२१
@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@
अहले सुबह कार्यालय के तरफ जाने की आदत ने मुझे कब मेरी आंखों की रौशनी और दिल का शुकून छिन लिया मुझे तो पता ही नहीं लगा। अब लोग तो यह भी फुसफुसाते हुए पाए गए कि ये तो अपने बाप से भी बुढ़ा दिखने लगा है, इन्हें समझाओ भाई बाप को जवान रखने के लिए खुद को उम्रदराज करना पड़ता है। एक वो भी क्या दिन थे मां थी तो लगता था जैसे कि सारी दुनिया हमारी है, उनके इंतकाल के बाद से कोई उस तरह से देखभाल करने वाला रहा ही नहीं पिताजी की समझो तो जैसे कमर ही टूट गई हो ले देके मैं ही तो बचा हूं। मैं भी अगर मुंह फेर लूं तो ऊपरवाले को क्या मुंह दिखाऊंगा, यही सोच कर ये हीरा संभाल पाया हूं ताकि गर्व से कह सकूं मेरी हैसियत दासी है क्योंकि मेरा बाप जिन्दा है। खैर इन्हीं दासतो में ये बताना भी भूल गया कि जिस रास्ते में मेरा कार्यालय था वहीं कुछेक दूरी पर एक बदनाम गली भी थी जिस तरफ कभी ध्यान ही नही गया। इत्तेफाक से एक सुबह जब मैं आफिस के लिए निकला तो पता नहीं कैसे अनायास ही मेरे कदम उस ओर चले गए जैसे ही दरवाजे के पास पहुंचा कि एक शहद सी मिठास मेरे कानों में रस घोला, मैं आपको रोज जाते हुए देखती हूं मैंने भी अपनी इज्जत की दुहाई देते हुए फ़रमाया मुझमें और आपमें कैसी तुलना मैं एक जिम्मेदार किसी का बेटा, किसी का पति, किसी का पिता हूं तुम कोठे की रौनक हो वह कुछ देर निरुत्तर होकर मुझे देखते रही शाय़द कह रही हो कितने इज्ज़तदार यहां रोज बा इज्जत हो लौटते हैं, खैर अनमने ढंग से मैआफिस पहुंचा काम निपटा कर जल्दी जल्दी घर पहुंचा। घर आया तो सर में बरी ज़ोर की दर्द उमरा बिबि भांप ली सर पर मालिश करते हुए बोली छुट्टी काहे नहीं ले लेते हो उसे कौन समझाए जनवरी में छुट्टी कौन लेता है भला, सारी रात करवटें बदलता रहा पता नहीं कब आंख लग गई सुबह के आठ बज रहे थे मैं जल्दी से तैयार होकर आफिस को निकला धूनध में कुछ दिखाई भी नहीं दे रही थी कि तभी अचानक एक जोर से टकराने की आवाज आई और मैं बेहोश हो गया बस इतना सा ही सुन पाया था इन्हें अस्पताल पहुंचा दे प्लीज़ होश आया तो अपने को सरकारी अस्पताल में पाया डॉक्टर फरमा रहे थे आज अगर मैं जिन्दा हूं तो उस औरत के वज़ह से हूं जिसके मुंह कपरे से ढकें परे थे, मैं लरखराते कदमों से उसके मुंह को देखा मेरी चित्कार निकल गई मैं फिर से बेहोश हो गया। कई दिनों तक इलाज के बाद में घर पहुंचा आज भी जब उसका चेहरा याद आता है तो सोचता हूं वो मेरी कौन थी ? जिसने मेरी खातिर अपनी जान दी मैं कैसा इज्ज़तदार था जो उसका दाहसंस्कार कर भी नहीं कर पाया। दोस्तों नारी चाहें जिस हालात में भी हो सम्मान की हकदार हैं। स्वरचित संस्मरण:- सुशील कुमार सिंह “प्रभात”

Language: Hindi
2 Likes · 549 Views
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