मुक्तक
उगे शायद ज़मीं से ख़ुद-ब-ख़ुद दीवार बैठे हैं
समझते हैं की हम दरिया-ए-ग़म के पार बैठे हैं
ऐसी न थी दुनिया अभी कल तक ये आलम था
यहाँ दो चार बैठे हैं वहाँ दो चार बैठे हैं
उगे शायद ज़मीं से ख़ुद-ब-ख़ुद दीवार बैठे हैं
समझते हैं की हम दरिया-ए-ग़म के पार बैठे हैं
ऐसी न थी दुनिया अभी कल तक ये आलम था
यहाँ दो चार बैठे हैं वहाँ दो चार बैठे हैं