81 -दोहे (महात्मा गांधी)
81 -दोहे (महात्मा गांधी)
वीर धीर अति संयमी, गांधी सदा महान।
अंग्रेजो से थे लड़े , जानत इसे जहान।।
सहज अहिंसक प्रेममय, भारत के वरदान।
महा पुरुष के रूप में, उनका ही यश गान।।
सत्याग्रह की राह पर, चले अकेले मौन।
सत्यव्रती इस दूत को, नहिं जानत है कौन??
उनके सफल प्रयास से, भारत हुआ स्वतंत्र।
गांधी जी की नीति ही, अति मनमोहक तंत्र।।
बैरिस्टर पद छोड़ कर, किया देश आजाद।
भारतवासी के लिए, बने हंस का नाद।।
थे विवेक के पुंज वे, दिव्य स्वदेशी भाव।
अति निर्मल पावन सरल, भारतीय सद्भाव।।
भारत की दृढ़ आतमा, संस्कृति का उत्थान।
गांधी जी की सोच का, करें सदा सम्मान।।
देख देश की दीनता, हुए बहुत बेचैन।
अति संवेदनशील वे, चिंतन नित दिन रैन।।
राष्ट्र पिता के नाम से, जग में हुए प्रसिद्ध।
अति साधारण भाव वे, संत शिरोमणि सिद्ध।।
रचे अमर इतिहास वे, बिना खड्ग बिन ढाल।
भाग गए अंग्रेज सब, देख से की चाल।।
82…..अमृतध्वनि छंद
इस पावन नवरात्रि में, मां दुर्गा का ध्यान।
पूजन अर्चन वंदना, अमृतध्वनि में गान।।
मातृ निवेदन, पावन चिंतन, मां को भज लो।
करो प्रार्थना, हाथ जोड़कर, भ्रम को तज दो।।
शांतचित्त हो, शुद्ध वृत्त हो, मां के द्वारे।
सदा शरण हो, कष्ट हरण हो, तेरे सारे।।
नौ रूपों में मातृ श्री, करतीं दिव्य निवास।
अति मनमोहक भाव मधु, शक्ति सौम्य अहसास।।
मधुर शैलजा, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा च।
प्रिय कुसमांडा, स्कंदमाता म, कात्यायनी क।।
कालरात्रि नित, महा गौरी ग, सिद्धिदात्री स।
नव्य सुगंधित, विश्व प्रशंसित, प्रिय माता नव।।
शक्तिशालिनी दिव्य धन, माता का दरबार।
राक्षसजन को मारने, लिया मात अवतार।।
दुर्गा मोहक, जग की पोषक, असुर मर्दिनी।
जय कृपालु मां, रक्षा करना, प्रेमवर्धिनी।।
संकट मोचन, सज्जन सेवक, साधु संतवर।
शक्ति नायिका, वीर गायिका, दुर्ग चक्रधर।।
83…. माधव छंद
मात्रा भार 27
8/8/11
जब भी मिलना, दिल से लगना, सुन लो हृदय पुकार।
शीतल छाया, बनकर आना, मेरे मन के यार।
गीत सुनाना, सदा लुभाना, हे प्यारे अवतार।
मंच बनाना, पटल सजाना, संगीतों का द्वार।
खुश रहना है, खुश करना है, सुख की हो बरसात।
मुस्कानों से, अरमानों की, सहज मिले सौगात।
मन हर लेना, दिल दे देना, चला करो बारात।
साथ निभाना, हाथ मिलाकर, सदा चलो दिन रात।
हे मेरे प्यारे, सदा दुलारे, चल नदिया के पार।
दोनों हंसते, गाते रहते, चितवन में हो प्यार।
एक दूसरे, के हित में ही, माधव चिंतन सार।
प्रीति जगाकर, हृदय समाकर, लेंगे मधु आकार।
84…. माधव छंद
8/8/11
देखा जब से, मोहित तब से, लगा हो गया प्यार।
मिलने का मन, करता रहता, बिना मिलन बेकार।
अति बेचैनी, प्रति क्षण रहती, जीना है धिक्कार।
समय थम गया, हृदय जल रहा, लगता जीवन भार।
प्यार असीमित, इस धरती पर, यह अनंत आकार।
सबके प्रति हो, शुभ्र कामना, जोड़ सभी से तार।
मन को निर्मल, जो करता है, वह पाता विस्तार।
मुट्ठी में है, प्रीति तुम्हारी, यदि बन खेवनहार।
85…. पद्मावती छंद
10/8/14
श्रृंगार तुम्हारा, अतिशय न्यारा, खुश हो जाता जग सारा ।
मधु मान बड़ा है, दिव्य खड़ा है, मस्तक पर बिंदी तारा।
कोमल वदनी हो, मृगनयनी हो, रूप बहुत है मस्ताना।
होठों पर लाली, मदिरा प्याली, सब दर्शक हैं दीवाना।
हो विश्वमोहिनी, प्रेम योगिनी, सकल लोक की प्रिय माया।
होता हर्षित मन, पुलकित नित तन, देखत तव कंचन काया।
सबका मन हरती, जादू करती, सबको वह खींच बुलाती।
उसकी है चलती, जगती मरती, मद पी दुनिया सो जाती।
86….. मनहरण घनाक्षरी
प्रधान तत्व शारदा,
अहैतुकी कृपा सदा,
मान ज्ञान दान शान,
मातृ को सजाइए।
स्वभाव शील मोहिनी,
घमंड भाव मर्दनी,
मंडनीय वंदनीय,
मातृ को जगाइए।
बयार दिव्य प्रेम की,
पुकार योग क्षेम की,
संहिता पुनीत नीति,
मातृ से लिखाइए।
सदा लिखो पढ़ा करो,
नित्य चल चढ़ा करो,
सीम हो गगन सदा,
ज्ञान को बढ़ाइए।
मत रुको झुको नहीं,
कापुरुष बनो नहीं,
विज्ञ प्राण फूंक फूंक,
चांदनी बुलाइए।
मातृ लोक सुंदरम,
अन्नदा वसुंधरम,
शक्ति शारदा नमामि,
भक्ति को सराहिए।
दुर्ग मातु प्राणनाथ,
आदि अंतहीन हाथ,
सरस्वती स्वयं वही,
ज्योति को जलाइए।
लेखनी करस्थ कर
धारणा समस्त धर,
गति प्रधान कामना,
वेद स्व बनाइए।
87….. विधाता छंद (बेटी)
अगर बेटी नहीं होती, कहां से सृष्टि यह चलती।
प्रलय दिखता समुच्चय में, सदा काली घटा रहती।
सकल यह दृश्य मिट जाता, नहीं संसार रह जाता।
नहीं मानव कहीं दिखता, स्वयं संबंध धुल जाता।
विलोपन देख दुनिया का, जरा यह कल्पना करना।
बचेगा क्या यहां पर कुछ, अगर वेटी हुई सपना।
बिना जननी कहां से पूत, का निर्माण हो जाता।
यही है कोख की रानी, यही है देवकी माता।
इसी पर गर्व करता जो, वही सम्मान करता है।
नहीं है ज्ञान जिसको वह, सदा अपमान करता है।
बहाता प्रेम के आंसू, सहज जो बेटियों पर वह।
सिखाता न्याय का दर्शन, दिखाता पथ सुदर्शन वह।
जहां बौद्धिक गिरावट है, जहीं है वासना कातिल।
जहां करुणा दया ममता,वहीं है बेटियों का दिल।
बहुत सोचो विचारो नासमझ , शैतान मत बनना।
बचाओ बेटियों को प्रिय, यही शुभ काम बस करना।
88…. मनहरण घनाक्षरी (श्री मां)
खार खात दुष्ट संग,
शक्ति रंग दिव्य अंग,
दुर्ग धाम रच सदा,
विश्व को निखारती।
अंग अंग अस्त्र शस्त्र,
लाल रंग वीर वस्त्र,
तेज रूप भाव भव्य,
दुष्ट को पछारती।
चंडिका प्रचंड वेग,
रक्तपान योग नेग,
मर्दिनी महा असुर ,
सभ्यता विचारती।
धोय धोय मार मार,
राक्षसों को बार बार,
भूमि भार तार तार,
मंगला पुकारती।
कर्म योग ध्यान योग,
संत मान प्राण योग,
जंग के लिए सतत,
दुर्ग मां की आरती।
बोल कर पुकारना,
नित्य नव निहारना ,
सुंदरी त्रिपुर शिवा,
वंदनीय भारती।
89…. मनहरण घनाक्षरी
सरल तरल मन, सहज विमल बन, करत सृजन प्रिय, अतिशय सुखदा।
सन सन चलकर, चमक दमक कर, सजत धजत अति, मधुरिम फलदा।
दिल मिल खिल खिल, व्यसन तजत हिल,
थिरक थिरक कर, कुचलत विपदा।
नमन करत हिय, लगत परम प्रिय, चपल दिखत वह, मनहर मरदा।
90….. विधाता छंद
नहीं अच्छी जहां बातें, वहां मत भूलकर जाना।
अहितकर दुष्ट की संगति, बुरी दूषित रखो ध्याना।
जहां हो सत्य का सागर, किनारे बैठ जाना है।
वहींं सत्संग लहरों का, सुखद आनंद पाना है।
जहां हो स्वस्थ मानवता, वहीं सुख सिंधु लहराता।
जहां हो सत्यता कायम, वहीं नैतिक ध्वजा गाता।
जहां द्वेषाग्नि में जलते, सभी मानव सुलगते हैं।
वहीं पर पाप संप्रेषण, सकल दानव विचरते हैं।
नहीं अन्याय का मस्तक, कभी ऊंचा उठे प्यारे।
रचो वातावरण पावन, बने मोहक सकल न्यारे।
कुटिल हर चाल को कुचलो, सदा मुख तोड़ देना है।
बहे अति स्वच्छ निर्मल जल, सभी को मोड़ लेना है।
91…. विधाता छंद
मुखौटा ओढ़ कर इंसान का शैतान चलते हैं।
किया करते सदा दूषित, क्रिया पर ध्यान रखते हैं।
नहीं परहेज गंदे से, सदा है गंदगी प्यारी।
स्वयं को साफ कहते हैं, लफंगी वृत्ति अति न्यारी।
खुदा इनका जुदा सचमुच, अलौकिक कुछ नहीं दिखता।
इन्हे है प्यार पैसे से, सुखद दैहिक बहुत लगता।
इन्हे सत्ता सुहानी है, अधिक है वासना मोहक।
नहीं परवाह औरों की, बने ये घूमते शोषक।
सदा अफवाह फैलाते, घृणा के बीज हैं बोते।
सदा ये जागते रहते, कभी भी हैं नहीं सोते।
चरम है लक्ष्य इनका बस, रहें ये पंक्ति में आगे।
झुके दुनिया बनी मौनी, जरा सा देख कर भागे
92…. विधाता छंद
जहां है प्रेम की धारा, वहीं श्री कृष्ण रहते हैं।
बजा कर प्रीति की वंशी, लिए राधा विचरते हैं।
सहज गोपी वहीं आतीं, मचलतीं देख कान्हा को।
मिलाकर दिल सदा प्रिय से, निछावर सर्व कृष्णा को।
जहां संसार मोहक हो, वहीं प्रेमिल मधुर मोहन।
जहां शिव लोक बनता हो,वहीं मधु भाव सम्मोहन।
जहां सच्चा बहुत प्यारा, जहां संवेदना दिखती।
वहीं पर प्रेम की संस्कृति, सनातन मूल्य नित लिखती।
93……विधाता छंद
सनातन धर्म को जानो, यही दर्शन सुहाना है।
यही है भावना मौलिक, इसी का भाव गाना है।
इसी पर है मनुज दिखता, खड़ा इक सभ्य मानव सा।
इसी पर अस्मिता सबकी, यही है स्वर्ण मुख जैसा।
यही ऋषियों का चिंतन है, सतत पावन क्रिया शोधन।
यही है आत्म का विचरण, यही है स्वत्व उद्बोधन।
यही शाश्वत सदा निश्चल, यही अमृत घड़ा सुंदर।
यही बहता नसों में है, यही है तत्व शिव अंदर।
यही है संत की वाणी, इसी पर लोक की रचना।
यही कहता सभी से है, अहिंसक भाव में रहना।
नहीं हिंसा कभी करना, नहीं आतंक को चुनना।
रहे मन साफ दिल कोमल, सकल जग को समझ अपना।
सभी में तत्व इक ही है, सदा इस मंत्र को जपना।
करो कल्याण जगती का, हितैषी बन थिरकना है।
सभी में भाव मधुरिम हो, इसी पर काम करना है।
सनातन धर्म कहता है,सदा इंसाफ करना है।
दिखे इंसानियत कायम, सरल इंसान बनना है।
रहे दिल में रहम सबके, यही भंडार हीरा है।
यही हरता सकल जग की, निरंतर कष्ट पीरा है।
94….. डॉक्टर रामबली मिश्र के अभिनव छंद
11/11/7
करना सुंदर काम, पाओगे तब नाम, किया करना।
चलना उत्तम पंथ, पढ़ना पावन ग्रंथ, लगे रहना।
रचना मोहक राह, यही दिव्य हो चाह, नही आलस।
होना नहीं निराश, करना नहीं हताश, रखो साहस।
सबके प्रति सम्मान, कभी नही अभिमान, रखो अंकुश।
रखना नहीं मलाल, पूछो नहीं सवाल, सदा रह खुश।
जो सहता है कष्ट, सत्य बोलता स्पष्ट, बने तपसी
वह चलता मुंह खोल, मन में नहिं है पोल, नहीं बहसी।
मुख पर हो उल्लास, चलता रहे प्रयास, श्रम को पूज।
सुनो हमारे मीत, बन जाओ संगीत, कर मत दूज।
रहे सहज मुस्कान सत शिव सुंदर गान, बनो सुजान।
होय सदा रसपान, देखो सत्य बिहान, करो नहान।
95…. डॉक्टर रामबली मिश्र कृत अभिनव छंद
8/11
देखो प्यारे, तेरा मोहन आज।
करता प्रति पल, केवल तुझ पर नाज।
तुझसे कहता, अपने दिल की बात।
इसकी सुनना, प्यारे सब दिन रात।
जन्म जन्म का, यह मनमोहक साथ।
कभी न छूटे, हम दोनों का हाथ
महल सजेगा, आयेगी बारात।
लग जायेंगे, मन के फेरे सात।
रूप सलोना, दिखे सहज हर वक्त।
बने इकाई, अंग अंग अनुरक्त।
यही विश्व हो, पूरे हों अरमान।
हम चमकेंगे, होय प्रीति का गान।
स्वर्ग मिलेगा,, सुख लेगा अवतार ।
अमर रहेगा, नहीं मिटेगा प्यार।
मिट जायेगा,जीवन का संग्राम।
यही समझना, मिला अटल विश्राम।
96….. छंद रत्नाकर
बढ़ना आगे, पीछे मत मुड़, चलते रहना, सोच समझ कर।
लक्ष्य देखना, कभी न रुकना, गति पकड़ो नित, तप तप तप कर ।
नहीं देखना, इधर उधर तुम, आगे देखो, चलना पग धर।
रोड़ा आये, तो हट जाना, फिर चलाता बन, संभल संभल कर।
मंजिल मिलना, निश्चित संभव, यदि दृढ़ निश्चय, मन में होगा।
काम अधूरा, पूरा होगा, यदि विचलित मन, कभी न होगा।
नियमित पावन, सदा सुहावन, प्रिय मनभावन, लक्ष्य सदा हो।
करता जो नर, शुद्ध आचरण, वही सफल गति, शील अदा हो।
वह पंथी है, सच्चा राही, पंथ बनाता, जो चलता है।
निर्विरोध प्रिय, स्वयं प्रकाशित, सदा चहकता, वह रहता है।
नहीं किसी से, कुछ कहता वह, मौन रूप धर, उन्नति करता।
विश्व समझता, उसे पहेली, नित्य नया वह, सहज निखरता।
97…. छंद रत्नाकर
122 122 ,122 122
चलो नित अकेले, नहीं साथ खोजो।
पहुंचता वही है, अकेला चला जो।
मिले हैं बहुत से, सदा राह चलते।
अकेला चले मन, मचलते मचलते।
इधर से उधर से, सभी साथ रहते।
तुझे देख कर वे, निखरते विचरते।
सदा सोच ऐसा, तुम्हीं एक गुरु हो।
क्रिया कर्म कर्ता, स्वयं स्तुत्य कुरु हो।
कभी भी अकेले, नहीं जीव रहता।
यहां इस जगत में, जहां संग चलता।
तुम्हीं देह देही, तुम्हीं आतमा हो।
तुम्हीं आदि अंतिम, सहज ज्योतिमा हो।
बनाया तुझे जो, वही साथ तेरे।
वही घूमता है, लगाता है फेरे।
चलाता निरंतर, सदा चक्र प्यारा।
बचाता तुझे वह, बना नैनतारा।
करोगे भरोसा, चमकते रहोगे।
रहो दृढ़ अटल नित, गरजते रहोगे।
बढ़ो देख मंजिल, निकट है तुम्हारे।
खड़े देख नैय्या, लगी है किनारे।
98…. छंद रत्नाकर
11/11
कर्मनिष्ठ का भाग्य, कभी तो जागेगा।
श्रम के प्रति अनुराग, मनुज को भाएगा।।
श्रम है साधन तत्व, इसे जो अपनाए।
वही सत्व अस्तित्व, जगत में बन जाए।।
होता सफल प्रयास, अगर हो सच आस्था।
रहता मनुज उदास, जहां तिमिरावस्था।।
कर श्रम के प्रति न्याय, बनो इक शिव साधक।
करता जो अन्याय, वही अपना बाधक।।
कर्मनिष्ठ मन वृत्ति, सदा शांती देती।
यह प्रिय लोक प्रवृत्ति, सहज दुख हर लेती।।
99…. छंद रत्नाकर
11/11
यह है शिष्टाचार, हो सबका सम्मान।
रखो सभी का ख्याल, सीखो उत्तम ज्ञान।।
मन में हो मधु भाव, करना तुम उपकार।
मानवता को सींच, यह है सुखद विचार।।
धो कर दुख के घाव, जो देता है छांव।
वह होता है पूज्य, दुनिया छूती पांव।।
सेवा कर्म महान, यह अति पावन धर्म।
रहे समर्पण भाव, यह मोहक सत्कर्म।।
होता खुद ही नाम, यदि हो दिव्य स्वभाव।
सबके मन को मोह, छोड़ो मधुर प्रभाव।।
जीवन का उत्कर्ष, प्रेम भाव में देख।
दनुज वृत्ति को त्याग, लिखना सदा सुलेख।।
100…. छंद रत्नाकर
8/8/11
पहले सोचो, फिर तब बोलो, रखना स्पष्ट विचार ।
बिन चिंतन के, बिन मंथन के, मत करना व्यवहार।।
बात कहो वह, जो हितकारी, खुश हो जाएं लोग।
ऐसा प्रस्तुत, कभी न करना, पैदा हो मन रोग।।
जो सम्मानित, सबको करता, वह देता है दान।
जो गरीब को, तुच्छ समझता, वह मूरख इंसान।।
हीन उच्च का, भेद खत्म जो, करता वही महान।
दीन दलित के, प्रति संवेदन, में रहते भगवान।।
न्यायोचित के, संरक्षण को, मानो पावन पर्व।
दिल सागर के, प्रेम लहर पर, हो आजीवन गर्व।।
प्यार परम सुख, देता रहता, रखना इसका ख्याल।
कभी न देना, तोड़ हृदय को, मत करना बेहाल।