•{ हृदय से “हृदय” संवाद }•
मर्म में है ज्वलंत प्रचंड ज्वाला,
क्रोध है विकराल तांडव करनें वाला।
भले है अधरों पर मंजुल मुस्कान “हृदय”
परंतु है कोई अंतर्मन रूदन करनें वाला।
निज चरमसीमा पर संप्रति है आक्रोश ,
सर्वस्व बस निष्ठुर नियति का है दोष।
नयनों में न है तनिक भी विषाद “हृदय”,
परंतु क्षण-क्षण आत्मशांति है बेहोश।
भला कैसी है इस जग की रीत,
मात्र प्रपंच रुपि है स्नेह-प्रित।
सर्वत्र मृषापूर्ण प्रेम ही है “हृदय”
बस धन-धान्य हेतु ही सब मीत।
यत्र-तत्र बिखरा है केवल स्वार्थ ही स्वार्थ,
समझो यदि वर्तमान मानवता का शास्त्रार्थ।
परायों नें डाला है पट निजता रुपि “हृदय”
विषम न है समझना कलयुगी नातों का भावार्थ।
उषा में भी दृश्य है केवल निशा की कालिमा,
मानों जीवन से विलुप्त है हर्षित लालिमा।
कलम की कोर टूटी-बिखरी पड़ी धरा पर “हृदय”
मानों शब्दसरिता रुपि श्वास से है संपर्क अंतिमा।
-रेखा “मंजुलाहृदय”