11. एक उम्र
एक बूंद यादों का आज छलका फिर आँखों से मेरे,
बरसों का सफर दशकों का ग़म हल्का हुआ आँखों से मेरे I
एक उम्र गुज़ार दी थी तरसते हुए रोने के लिए,
ज़माने का साया चलता रहा उलझा आँसू कोने में लिए I
बाज़ारों से निकला झूठा चेहरा बेरंग मुस्कान ढकने के लिए,
झील किनारे सुनसान बाग में बैठा रहा बस सच के लिए |
याद उन्हे भी आती रही जो आ ना सके राहों के लिए,
वादे सारे बेबस हो गए मुट्ठी भर बातों के लिए ।
मेरा होना या ना होना ना मालूम होगा उन्हे भी शायद,
एक उम्र गुज़ारी है हमने बस अब होने के लिए।।
~राजीव दुत्ता ‘घुमंतू’