◆पेट की भूख◆
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ठीक दोपहरी कड़की धूप,
ज्वाला में तप रखे थे नभ भूप।
सहसा दिखा एक परिवार,
जिसमें थे सदस्य बस चार।
नन्हे शिशु शैशव दादी माता,
पेट था बहुत भूखा ,
कोई तो भोजन देता ।
एक दृष्टि देखा जब पैने,
द्रवित हुआ दिल थामा मैंने।
करीब था चालीस का धूप,
झिलमिल आँचल में
लिपटा था नन्हा पूत।
नंगे पांव आया एक शैशव ,
उसी समय हस्ते हस्ते।
बिना पैंटी के मुस्कुराया,
जैसे कृष्ण उसमें बसते।
रूह मेरी कांप गयी ,
सहनशक्ति उनकी देखकर।
अन्नदाता को भी कोशा,
उनको निरेखकर।
क्या जला नही होगा पाँव,
कंक्रीट की सड़क पर,
वह तप से सहम गया होगा,
शिशु सूर्य की कड़क पर।
बात भूख की थी,
कुछ दे दो भाई।
आस लिए आंखों में ,
उसकी दादी माई।
नंग धड़ंग बालक ,
प्रकृति को चैलेंज करता।
जब पैदा किया तूने ,
तो तू ही पेट भरता।
पर तपन से बड़ी ,
उसकी भूख पेट थी।
चढ़ रही सारी ,
योजनाओं की भेंट थी।
मेरा दर्द उठा ,
और कलम उठाई।
विधाता से कुछ कहने को ,
हृदय में जुटायी।
कोई खाने के बिना मरे ,
ऐसी कोई भूख ना दे,
कोई खा खाकर मरे,
ऐसा कोई सुख ना दे।
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अशोक शर्मा, कुशीनगर,उ.प्र.
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