॥ वर्णरत्नाकर ॥ श्रो ज्योतिरीश्वर ठाकुर
मिथिला में लोकनाट्यों की परंपरा अत्यंत समृद्ध रही है । सम्पूर्ण भारत के लोकनाट्यों को प्रभावित करने वाले तीन मुख्य कारण की उत्पत्ति यही हुई है । 11वीं शताब्दी में ज्योतिरीश्वर ठाकुर द्वारा रचित वर्णरत्नाकर, जयदेव का’गीतगोविंद’ तथा उमापति द्वारा रचित ‘पारिजातहरण नाटक’ इन तीन ग्रंथो का प्रभाव उत्तर से दक्षिण, पूर्वी भारत के लगभग सभी लोकनाट्यों पर पड़ा । ज्योतिरीश्वर ठाकुर के द्वारा रचित ‘वर्णरत्नाकर’ की बात करें तो यह महाकाव्य विश्वकोषीय ग्रंथ है । यह ग्रंथ तत्कालीन समाज और कला का विश्वकोश है । वर्णरत्नाकर गद्य काव्य है, जो प्राचीन मैथिली में विरचित है । विद्वानों ने इसे आधुनिक आर्य भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ कहा है, बिदापत तथा नटुआ नाच जैसे नाट्य रूपों की चर्चा हमें वर्णरत्नाकर से ही मिलती है, वर्णरत्नाकर में वाद्यों कलाजीवियों, चौसंठ कलारूपों, नायक -नायिका के प्रकार का उल्लेख हुआ है । संगीतशास्त्रीय दृष्टि से वर्णरत्नाकर महत्वपूर्ण ग्रंथ है, इसमें 45-46 रागों का उल्लेख हुआ जिंका प्रयोग कीर्तनियाँ नाटकों में हुआ है ।
जयदेव द्वारा रचित गीतगोविंद भारतीय कला इतिहास में मोड साबित हुआ । गीतगोविंद वैष्णव परंपरा का भक्ति काव्य है । जिसमें वृन्दावन में राधा और कृष्ण की विविध काम – क्रीड़ाओं का चित्रण है । इस काव्य का उद्देश्य श्रृंगार के माध्यम से भक्ति है। इसके पद, सर्ग संगीतबंध है जिसमें रागों का उल्लेख् हुआ है । तीसरा इसमें नाट्य तत्व है । सभी प्रबंधों में निरंतर विद्यमान यह नाट्य तत्व उन्हे नृत्य संगीत का रूप ब्रजबूलीकरता है । इस प्रकार गीतगोविंद में काव्य नाट्य, संगीत और नृत्य, इन चारों को समाहित करने की अद्भुत क्षमता है । असम के शंकरदेव की रचनाओं,बिहार के उमापति की कृतियों, तमिल क्षेत्र के भागवत मेला नाटकों, कर्नाटक और आंध्र के यक्षगान मलयालम ,कृष्णट्ट्म और कथकली, इन सबका अंतिम प्रेरणा स्रोत गीतगोविंद है ।
डॉ॰ राघवन का मत है की संसार में संगीत और नृत्य के सम्पूर्ण इतिहास में जयदेव के गीतगोविंद से बढ़कर कोई कृति नहीं।
[1] तीसरी महत्वपूर्ण कृति उमापति ‘पारिजातहरण’ जो पूर्व से दक्षिण तक के कई लोकनाट्यों में खेला जाता है । कालांतर में कर्नाटक में ‘कृष्ण पारिजात’ नाट्यरूप ही विकसित हुआ, जो आज भी प्रदर्शित होता है । वैष्णव संत शंकरदेव ने भी उमापति से प्रभावित हो पारिजातहरण यात्रा की रचना की । [2]
त्रिपुरा के ढब जात्रा, उत्तर बंगाल के जात्रा, बिहार के बिदापत नाच आदि पारंपरिक नाट्यों में पारिजातहरण का कथानक बहुत दिनों तक मंचित होता रहा । धार्मिक होते हुए भी इसका कथानक सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्धों से विकसित हुआ । यहाँ कृष्ण आलौकिक शक्ति नहीं बल्कि दो पत्नियों के मध्य विवाद को सुलझाने में असफल गृहस्थ है । इस कारण यह कथानक कई नाट्य रूपों में प्रचलित हुआ ।
मिथिला में नृत्यप्रधान लोकनाट्यों को नाच कहा जाता है । चौदहवीं शताब्दी में ज्योतिरीश्वर वर्णरत्नाकर ने लोरिक नाच[3], विद्यापति (गोरक्षविजय) ने दक्षिण देशीय नाच, और जयकान्त मिश्र ने कार्तिक नाच (नृसिंह नाच ) का उल्लेख किया है । मिथिला में सलहेस, कमला, नारदी, बिदापत पसरिया आदि नाच अद्यतन पारंपरित है । [4]ज्योतिरीश्वर और विद्यापति ने नाट्य को नृत्य की पर्यायवाची सीमां में बांधा है । नेपाल में रथयात्रा के अवसर पर कार्तिक नाच जैसे मैथिली लोकनाट्य की और मिथिला में पारिजातहरण नाच की परंपरा बनी हुई है । अतः मिथिला में नाच अथवा नाट्य सदियों से लोकरुंजन का जीवंत और सशक्त माध्यम बना हुआ है । [5] मिथिला की इसी सशक्त परंपरा में बिदापत का उद्भव होता है ।
वर्णरत्नाकर के अनुसार जाति व्यवस्था
पुनु कइसन देषु । नागल् तोँगल तापसि तेँलि •
ताति तिवर तुरिआ तुलुक तुरुकटारुअ धेओल •
धाङ्गल धाकल धानुक धोआर धुनिया धलिकार•
डोव डो | वटारुअ खाँगि षगार हाडि ढाडि भल•
पुनु कइसन देखू मन्दजातीय तेँ वास ।
प्रथम कल्लोल में शहर का वर्णन करता है।
मूल तडिपत्रक आदि से नौ पत्तियाँ खंडित होती हैं। यहां से एक नए खंड या वाक्य की शुरुआत होती है,जो अधीनस्थ उपवाक्य पुन्नु कइसन देषु द्वारा इंगित किया गया है। यहां इकतालीस मंद अर्थात निम्नवर्गीय जातियों का उल्लेख किया गया है। एस. भी. विश्वनाथ की पुस्तक रेशल सिंथोसिस इन हिंदू कल्चर (पृ. 76) से ज्ञात होता है कि तमिल व्याकरण-लोगो के अनुसार, भारत की मूल जातियों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था – मक्कल, तेवर और नागर। बहुत संभव है कि यहाँ ये तीन जातियाँ क्रमशः माकल (अपपाथ धाकल), तिवर और नागल हों। मिथिला में ये तीनों जाति आज अज्ञात हैं। तुरिया था बिरहोर जाति आदिवासियों का एक गोत्र है, जो वर्तमान में आदिवासियों में तोरिआर कहा जाता है (रांची गजेटियर, पृष्ठ 108) । तुलुक- तुरुक, तुक । धलिकार-धरिकार, सूप के बीनने वाली एक जाति। डोँव -डोम! षगार संभवतः वही आदिवासी जाति है जिसे अब खाँगर कहा जाता है (देखें रांची गजेटियर, पृष्ठ 108)।
भल-भर जातीय क्षत्रिय जो पहले मिथिला में रहते थे। गोण्ठि- गोँढ़ि मलाह ! गोण्ठ-गोंड एक आदिवासी जाति जो अब प्रसिद्ध है। ओड- उड़ीसा की एक ऐतिहासिक प्रसिद्ध जाति जो कुआँ खोदने का व्यवसाय करती थी; इसके नाम पर इस राज्य को उड़िसा कहा जाता है
(उड़िया साहित्य पर देखे मैथिली प्रभाव; मिथिला-मिहिर, 31-12-72)। शुण्डि – शौंडिक एक जाति जो गुंडा (आसवनी) से शराब बनाती है जिसे अब सूँड़ि कहा जाता है, पहले मध् का कारोबार करते थे। साव शायद आज की साह हैं ! कबार – सब्जी विक्रेता कुजरा (मिभा कोश देखें)। पंचवार की जानकारी वर्तमान समय में अब ज्ञात नहीं है परंतु युग्मशंब्द कोइरी कवार प्रसिद है! पटनिया-मलाह ! कुंजी संभवतः शुद्ध पढ़ना है