ज़हर
न जाने क्यों हम इस शहर में अजनबी से हो गए हैं।
कल तक जो थे अपने क्यों पराए से लगने लगे हैं।
क्यों ग़ुमसुम़ सी है वो मस़र्रत की फिज़ां अब ।
क्यों परेशाँ से लगने लगे हैं वो मुस्कुराते से चेहरे अब ।
कल तक जो रहते थे साथ साथ।
क्यों बिखरे बिखरे से लगते कतराते से हैंं आज।
प़शेमाँ हूं क्या ऐसा कुछ हाद़सा गुज़र गया।
जिसने यह कैसा ज़हर लोगों के ज़ेहन में घोल दिया।
जिसने एक दोस्त को दोस्त से अलग कर दिया।
और कल तक जो दुश्मन था उसे दोस्त बना दिया।