ग़ज़ल
ज़िन्दगी की मुस्कराहट खो गयी।
दर्द में जीने की आदत हो गयी।।
एक हक़ीक़त ने हमें….ऐसे छला।
ख़्वाब से भी हमको दहशत हो गयी।।
गुज़रे हर लम्हात….अफ़साना बने।
आदमीयत की शहादत… हो गयी।।
इश्क़..धोख़ा, छल-फ़रेबी हो गया।
नाम से इसके भी नफ़रत हो गयी।।
सिलसिला ये ख़त्म कुछ ऐसे हुआ।
ज़िन्दगी बस एक तोहमत हो गयी।।
बा-ख़बर हम उसकी..अय्यारी से थे।
फ़िर भी हमको कैसे ग़फ़लत हो गयी।।
ज़िन्दगी ‘तनहा’ ही चल दी अर्श तक।
अब मुक़द्दर से बग़ावत…..हो गयी।।
©-डॉ० सरोजिनी ‘तनहा’