$ग़ज़ल
28- बहरे हज़ज मुसम्मन अख़रब
मक़्फूफ़ मक़्फूफ़ मुख़न्नक सालिम
मफ़ऊलु मुफ़ाईलुन मफ़ऊलु मुफ़ाईलुन
#वज़्न – 221/1222/221/1222
#ग़ज़ल
बू रोज लिए हँसता ले जोश नवाबों का
जो यार मिला मुझको है नूर गुलाबों का/।
हर बात लगे ऐसी बरसात हुई जैसे
आनंद मिले सुनके अहसास ज़वाबों का/2
वह लाख हज़ारों में सौग़ात तराशी है
ज़ज्बात लिए चाहत में सार क़िताबों का/3
चाहूँ मैं तुझे हरपल दिल जान से भी ज़्यादा
तू चाँद बनी रातों में रोज ख़वाबों का/4
ताबीज़ बनाकर पहनूँ प्यार करूँ इतना
जो दूर हुआ तो होगा दौर अज़ाबों का/5
ये प्यार इबादत रब की पाक हसीं सबसे
बाकी तो ज़माने में हर खेल सराबों का/6
बेचैन हुई हर मछली साँस घुटी जाए
सब यार सुनो बदलो पानी ये तलाबों का/7
#आर.एस. ‘प्रीतम’
सर्वाधिकार सुरक्षित ग़ज़ल
शब्दार्थ- बू- ख़ुशबू, अज़ाबों- पीड़ा/यातना, सराबों- मृगतृष्णा/धोखा