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22 Aug 2020 · 1 min read

ग़ज़ल

वज़्न : 221 1221 1221 122

हर सम्त अंधेरा है इसे दूर भगाओ
है कोई मुनव्वर तो मिरे सामने आओ

क़ातिल हो तो क़ातिल की तरह पेश भी आओ
घायल हूँ मिरे ज़ख़्म पे मरहम न लगाओ

कोई न उठाएगा यहाँ बोझ तुम्हारा
शानों को ज़रा और भी मज़बूत बनाओ

कश्ती को सँभालो न रहो चूर नशे में
गर डूबना है डूबो हमें तो न डुबाओ

काँटों की तो तासीर है वो चुभते रहेंगे
तुम फूल हो ख़ुशबू की तरह फैलते जाओ

ऐसे भी वो करता है सर-ए-आम फ़ज़ीहत
पर काट के कहता है मुझे उड़ के दिखाओ

मुमकिन तो न था फिर भी तुम्हें दे दी मुआफ़ी
अब छूट है तुमको नया इल्ज़ाम लगाओ

‘सालिक’ तो चला जाएगा दुनिया से किसी दिन
आएगा नहीं लौट के कितना भी बुलाओ

5 Likes · 3 Comments · 397 Views
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