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28 Jan 2020 · 1 min read

ग़ज़ल – जिसे हक़ीम समझ नब्ज़ हम दिखाते हैं….

जिसे हक़ीम समझ नब्ज़ हम दिखाते हैं।
वही दवा के बहाने ज़हर पिलाते हैं।।

दिखा के ख़्वाब-ए-ख़ुशी ग़म परोस जाते हैं।
शिकारी ज़ाल मे अपने हमें फँसाते हैं।।

पहाड़ लोग यहाँ राई का बनाते हैं।
चने के पेड़ पे हमको चढ़ा गिराते हैं।।

मिटाने हस्ती मेरी बस्तियां जलाते हैं।
धजी का साँप यहाँ लोग ही बनाते हैं।।

करें भी कैसे यकीं अपनी आस्तीनों पे।
यहाँ पे हाथ ही अब हाथ काट जाते हैं।।

करें न कोई बड़ाई भले से कामों की।
तभी तो ‘कल्प’ यहाँ दोष ही छुपाते हैं।।
अरविंद राजपूत ‘कल्प’
1212 1122 1212 22

2 Comments · 255 Views
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