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11 Mar 2017 · 1 min read

“होली के रंग”

“होली के रंग”
सोच रही हूँ कलम हाथ ले
रँग दूँ सबको होली में,
फाग बयार झूम कर कहती
चल गरीब की खोली में।

रँगी बेबसी धूमिल सा मुख
जिस्म खरौंचे कहती हैं,
बच ना सकी कोई अहिल्या
निर्मम शोषण सहती हैं।

देख टपकती छत गरीब की
सूखी होली रोती है,
दो टूक कलेजा प्रश्न करे
कैसी होली होती है??

भूखा बालक लाद पीठ पर
बेबस सीढ़ी चढ़ती है,
देह ढ़ाँकती फटी चुनरिया
ललना पत्थर गढ़ती है।

सीमा प्रहरी बन सपूत वो
सीने पर खाते गोली,
लहुलुहान रंगों से सिंचित
मातृभूमि खेले होली।

अश्रु बहा संवेदित होली
दे संदेशा अपनों का,
समता भाव जगा निज उर में
महल बनाना सपनों का।

तब महकेगी महुआ आँगन
भीगेंगे दामन चोली
दुख-दर्द भुला कर टेसू में
मिल कर खेलेंगे होली।

डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
महमूरगंज, वाराणसी।
संपादिका”साहित्य धरोहर”
वॉट्सएप्प नं.–9839664017

Language: Hindi
579 Views
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