होली औऱ ससुराल
शीर्षक-होली और ससुराल –
मस्ती का आलम
ना कोई फेर फिक्र
बस हर होली नई
नवेली।।
ना जाने कितनों की
रंग दी अंगिया चोली
गाल पे मला गुलाल।।
सबका अनुमान बच्चा
अबकी होली फंस गया
बेड़ी में बंध गया।।
छोरी गोरीयां भी करती
इंतज़ार हमे भी निहारे
लगाए रंग गुलाल।।
क्या खूब था मेरा भी
होली के सामाजिक
बाज़ार में भाव।।
हुआ विवाह दोस्तो ने
कहा बेटा अब पाया औकात
अबकी होली में शून्य हुआ
तेरा बाज़ार भाव।।
बात भी सही हालात
भी वही जो होली से
हप्तों महीनों मेरा करते
इन्तज़ार ।।
अब नही करते
याद होली की तो दूर की
बात।।
अब मेरी होली की
मस्ती का बचा एक
ही आस बीबी का
मायका मेरी कथित
ससुराल।।
हज़ारों प्रस्तवित
ससुराल के दिन बीते
हम एक कैदखाने में
सिमटे।।
आनेवाली थी विवाह की
पहली वर्ष गांठ उससे पहले
ही आया मधुमास जगाया
ससुराल की पहली होली
सपना हकीकत का राज।।
पहली होली ससुराल से
आया फरमान बबुआ पहली
होली बा यही मानावे के बा
रंग होली के जमावे के बा।।
हम भी पहुँचगये ससुराल
पहली होली के दामाद
बहुत अच्छी तरह है याद
जली होली और हम हुये
रात ही को हरा पिला लाल।।
कैसो थोड़ी बहुत सोवे के
मिली मोहलत होली की
हुड़दंग की शुरुआत सूरज
की पहली किरण के साथ।।
जो ही आता सिर्फ इतना
ही कहता पहली होली के
दामाद इनके याद दियावो
के ह औकात।।
बीबी की सहेलियां कुछ
लाइसेंस के साथ कुछ
लाइसेंस की खुद करती
तलाश।।
होली की मस्ती
में मदमाती मुझे ही अपने
लाइसेंस का जैसे उम्मीदवार
बनाती।।
हमारी बीबी देखती गुरर्राती
जरा सलीके से रंग लगाओ
जीजा जी शर्मीले है
जैसा समझती नही वैसे है।।
हम भी करते मौके की
तलाश मिलते ही कुंआरे
होली का निकालते भड़ांस
रंग अबीर का बहाना।।
वास्तव में कैद जंजीर शादी
व्याह की सिंमाओ का अतिक्रमण
कर जाना।।
ससुराल में कहती बीबी की
सहेलियां ई त बड़ा है खतनाक
मौका पौते कर देत ह हलाल।।
के कहत रहल बबुआ बहुत
सीधा हॉउवन ई से जलेबी
की तरह कई घाट मोड़ के
घुटाँ हॉउवन।।
ससुराल की पहली होली
में साली सरहज बीबी की
सहेली क पहली होली म
ऐसा दिए सौगात अब
तक नाहीं भुलात।।
अब तनिक सुन हाल
उमर साठ और होली
क हाल ।।
होली के दिन पहुंचे
ससुरारल मिलां बैठे
साला खुदो पैसठ साठ।।
हमारी आदत खराब
सीधे कोशिश करे लाग
पहुंच जाए ससुरारल
क हरम खास।।
बोला गुर्रात रिश्ते का सार
हो गए बुड्ढे नाही शर्म लाज
का बात आदत से नाही
आवत बाज़।।
अंतर बेटवा पतोहि हवन
उनके आइल हॉउवन नात
रिश्तेदार बच्चन के होली
मानावे द मत बन कोढ़ में
खाज।।
देखते नही हम भी ड्राइंग
रूम में बैठे मख्खी मच्छरों
से कर रहे बात होली आई
रे रावण के सिपाही।।
हम त मनई शामिल तोरे
जमात जब देखे साले का
हाल खुद पे तरस आया मन
में आया खयाल उहे हम उहे
ससुरारल।।
होली की उमंग
मस्ती भी खास मगर अब
हम ना रंग उमंग ना गुलाल
हम होली की त्योहारों की
ऑचरिकता के पुराने प्रतीक
चिन्ह मात्र ।।
नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।।