हे राम रघुनंदन राम
मेरे मन के अंतर्मन को उज्जवल कर दो राम।
जिस रूप में देखूं तुम्हे उस रूप में प्रकटो राम।।
अवध भूमि बड़ी ही पावनी चरण पड़े जिस रज में।
भ्राता संग अठखेलियां करते सरयू जी के जल में।।
फिर से पुण्य भूमि भारत की पावन कर दो राम।
रघुकुल वचन निभाने हेतु गमन करें वो वन में।।
राजमहल का ऐश्वर्य तज शयन करें कुटियन में।
सीता सहित लखन साथ में वन वन भटकें राम।।
तारे बहुत नर बानर असुर गीध और गणिका।
पद कमल की रज से पाहन बन गए मणिका।।
मुझ से अधम अकिंचन को कब तारोगे राम।
पाप कर्म से धरती कांपे फैला बहुत यहां पाखंड।
तेरे नाम के बहुत हैं झगड़े मर्यादा भी है खंड खंड।।
मर्यादा का पाठ पढ़ाने चैत्र मास फिर जन्मों राम।
अंतर्मन की आंख से देखो तेरे भी और मेरे भी हैं राम।।
राम राम राम राम हे रघुनंदन राम राम,,,,,,,,,,,,,,,,, ।