हे मनुज श्रेष्ठ
मैं सूक्ष्म अति मैं ही विराट
मुझसे ही विशाल हिम ललाट ।
मुझमें सारा सकल सृजन,
सुशोभित मुझसे ये धरा गगन ।
मैं ही जल अग्नि व्योम समीर ,
मैं ही वसुधा का अथाह धीर ।
मुझमें निहित संसार सकल,
मैं स्नेह पराग मैं भाव विब्हल ।
मैं ही पावन सृष्टि आधार
मैं पावक विध्वंश संहार ।
मैं प्रचंड शिव का हूँ तांडव,
मैं अस्तित्व दानव और मानव
ज्ञान-विज्ञान, विद-विद्या सागर,
वाद संवाद अध्यात्म की गागर ।
मैं ही सर्वत्र सर्वज्ञ, नहीं कुछ रिक्त,
शव प्राणी जब मैं अतिरिक्त ।
मैं ही हर प्राणी की श्वांस
मैं भक्ति, भक्त प्रेम विश्वास ।
मैं ही अणु-कण और रज-रज,
रक्त भ्रूण और मैं ही हर अंडज ।
मैं ब्रह्म, पारब्रह्म, पूजा, उपासना,
शक्ति परम की मैं ही आराधना ।
मैं ही जप-तप-पाठ आरती में,
समस्त भाव अभिव्यंजन भारती में ।
मैं ईश्वर जगदीश्वर पूर्ण पररमेश्वर,
परम आत्मा, सर्वेश्वर , अखिलेश्वर ।
मैं ही भूतनाथ भूतों में,
मैं ही व्याप्त पंचभूतों में ।
मैं विघ्न विनायक सकल गुणराशी,
अंतर्यामी मैं ही घट घट वासी ।
मैं अचल-अटल-अमर-अविनाशी,
अविरल सृजन मैं ही विनाशी ।
मैं शाश्वत सत्य सनातन सृष्टि का,
अर्थ अथर्व हर गहन दृष्टि का ।
मैं पर्याय त्याग और प्रेम का,
अनन्त असंख्य कुशल क्षेम का ।
मैं ही अनहद का प्रथम नाद,
रण भेरी समर मैं शंखनाद ।
मैं ही शिव, काल महाकाल,
दया क्षमा मैं करुण कृपाल ।
मैं ही राग अनुराग स्नेह पराग,
सुमन, प्रसून, मैं वीत वैराग ।
मैं ही ॐ अर्थ, प्रणव, ओंकार,
साकार अर्थ मैं ही निराकार ।
अस्तित्व तेरा मैं तेरी पहचान,
भूत भविष्य मैं ही तो वर्तमान ।
सविता-सरिता सारा भूमंडल,
सागर पर्वत सकल जग कुंतल ।
हे मनुज श्रेष्ठ खुद को तू पहचान,
अंश मेरा तू उसको दे आयाम ।
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