हे पिता

हे पिता!
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हे पिता!
तुम्हारे लिए आज
जो दिवस बने हैं
मैं ठुकराता हूँ
प्रतिपल ऐसे दिवसों को।
जीवन के क्षण क्षण में
जो दुख आते थे
तुम उनको
बस झट से
चुटकी में हर ले जाते थे।
हे पिता!तुम्हें मैं कैसे बाँधूँ एक दिन में
तुम दशक नहीं,तुम सदी नहीं
तुम युग से बड़े महायुग हो
हे पिता!तुम्हें मैं कैसे बाँधूँ,कैसे बाँधूँ
एक दिन में?
जब अपने कदमों पर
मैंने चलना सीखा
गिरा,गिराया गया
कई-कई बार
लगी ना मुझको चोट
तलहथी तुम्हारी चोट सह गई
चेहरे पर बिखरी मुस्कान
हे पिता!तुम्हें मैं कैसे बाँधूँ एक दिन में।
लगती थी मुझको चोट जब कभी
दर्द तुम्हें ही होता था
तेरी आँखों मे देखकर ऑंसू
दर्द भी मेरा रोता था।
हे तात! तुम्हें मैं कैसे बाँधूँ एक दिन में।
जब घर से
पहली बार मैं
बाहर निकला था
चुपके से मुड़कर देखा था
तेरी आँखें,तेरी आँखें,
आँसू,आँसू
हे पिता! तुम्हें मैं कैसे बाँधूँ एक दिन में।
अपने जूते फटे
कभी तुम देख ना पाए
उसको सिलवा-सिलवा कर
तुम काम चलाए
छत उन्हें दिया
जो छत का मोल समझ ना पाए
हे तात! तुम्हे मैं कैसे बाँधूँ एक दिन में।
तुमने मुझको जन्म दिया है
रूप दिया है,रंग दिया है
खुशियों का तरंग दिया है
आँसू लेकर मुस्कान दिया है
जीवन में परमानंद दिया है
हे मेरे आराध्य!
मुझसे यह पाप ना होगा
क्षमा करो तुम।
हे तात! तुम्हें मैं कैसे बाँधूँ,
कैसे बाँधूँ,कैसे बाँधूँ
एक दिन में?
तुम मुनि नहीं,तुम ऋषि नहीं
ना अभिनेता ना नेता हो
तुम त्यागों के पर्याय अनवरत
बस तुम ही
आदर्श हो मेरे
अंतिम साँसों तक।
हे पिता तुम्हें मैं कैसे बाँधूँ
कैसे बाँधूँ,कैसे बाँधूँ
एक ही दिन में।
तुम दशक नहीं,तुम सदी नहीं
तुम युग से बड़े महायुग हो
हे पिता!तुम्हें मैं बाँधूँ कैसे,कैसे बाँधूँ
कैसे-कैसे,बाँधूँ-बाँधूँ
कैसे बाँधूँ
एक ही दिन में?
—अनिल कुमार मिश्र,रांची,झारखंड