रे पथिक! जग में सभी कुछ, छोड़ कर जाना पड़ेगा।।
रे पथिक! जग में सभी कुछ, छोड़ कर जाना पड़ेगा।।
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दम्भ से मुख तक भरा , घट फोड़कर जाना पडे़गा।
रे पथिक! जग में सभी कुछ, छोड़ कर जाना पड़ेगा।।
है यहाँ मिथ्या सभी कुछ , और श्वासें हैं पराई।
सुख तुझे लगता जो पर्वत, सत्य ही वह तुच्छ राई।
है सुनिश्चित याम जब, मुख मोड़कर जाना पड़ेगा।
रे पथिक! जग में सभी कुछ, छोड़ कर जाना पड़ेगा।।
एषणा उर में लिए मिथ्या बहु भ्रम पालता क्यों?
मोद की बस लालसा मे, स्वर्ग का सुख टालता क्यों?
है बना संबंध भव से, तोड़कर जाना पड़ेगा।
रे पथिक! जग में सभी कुछ, छोड़ कर जाना पड़ेगा।।
दुख नहीं फिर भी दुखी हैं, देख वह प्रतिवेश का सुख।
चाहता जो भी मिले उसको मिले परिवेश का सुख।
बोधगम्यक धन को बस, कर जोड़कर जाना पड़ेगा।
रे पथिक! जग में सभी कुछ, छोड़ कर जाना पड़ेगा।।
क्यों यहाँ, आना हुआ है, अवतरण, का क्या प्रयोजन।
किस मिथक, में जी रहा है, खाक को, बस मानकर धन।
लालसा, मुक्ति की कुछ बे,जोड़ कर, जाना पड़ेगा।
रे पथिक! जग में सभी कुछ, छोड़कर, जाना पड़ेगा।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण, बिहार