” हृदय से ना जुड़ सके तो मित्र कैसे रह सकेंगे “
डॉ लक्ष्मण झा ” परिमल “
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मित्रता के रंगों में परिवर्तन की बयार बहने लगी है परंतु मित्रता की मौलिक आधारशिला युगयुगान्तर तक अक्षुण बनी रहेगी ! वैचारिक समानता ,सहयोगिता ,मिलन और गोपनियता की पगडंडियों पर चलकर अद्भुत मधुर मित्रता की मंजिल को हम तय करते हैं !
डिजिटल मित्रता की दिशा में हम नये यंत्रों के सहारे अग्रसर हो चले ! कुछ नये मित्रों का समावेश हो गया ! कुछ पुराने मित्र, गुरु और श्रेष्ठ लोगों के दर्शन हो गये ! एक से दो ,दो से चार और फिर मत पूछिए सहस्त्रों लोगों से जुडते चले गये !
अब तो मित्रों को बनाने की प्रतियोगिता चल पड़ी है ! सीमित परिधियों के बंधनों को तोड़ हम क्षितिज के छोर तक पहुँच गये ! देश की सीमाओं को लांघ सम्पूर्ण विश्व से हम जुड़ गये !
मित्रता साक्षात हो या डिजिटल दोनों के आधारशीलाओं का हिलना दुखद माना जाता है ! डिजिटल मित्रता का व्यक्तिगत सनिध्य होना दिवा -स्वप्न माना जाता है ! विरले ही उनका मिलन हो पाता है ! उनके विचार का आदान – प्रदान फेसबूक और अन्य विधाओं में ही हो पाता है ! आखिर सबके सब दूर- दूर प्रान्तों और दूर -दूर देशों में रहते हैं !
स्थानीय मित्रों का भी समावेश इन डिजिटल रंगमंच पर है ! हम कितने भाग्यशाली हैं कि स्थानीय डिजिटल मित्रों के दर्शन हो जाते हैं ! पर हृदय व्यथित हो जाता है जब स्थानीय डिजिटल मित्रों की बेरुखी झलकने लगती है ! अनभिज्ञता और तिरस्कार भरी निगाहों को भला कौन झेल सकता है ? शालीनता और शिष्टाचार की बातें तो दूर रहीं मिलन की व्यग्रता मानो सुसुप्त हो गई ! हृदय विदारक क्षण हमें कुंठित कर देती है यथार्थतः ” हृदय से ना जुड़ सके तो मित्र कैसे रह सकेंगे ” !
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डॉ लक्ष्मण झा ” परिमल ”