हार हमने नहीं मानी है
मैं श्रमिक जब निकला थककर
जिस दिन घर द्वार से अपने
थे मेरे भी कुछ अदृश्य सपने
उठाकर गठरी, दुख की लेकर
चाह दूजे सी न थी, सुख देखकर
हृदय में पीड़ा, भरी पड़ी थी
चिंता , मुझे नही फिर भी
मुख पर मुस्कान अभिमानी है।
मैने हार कभी नहीं मानी है।।
मुझे पता है, कहीं ठिकाना होगा
भूखा पेट कहें, कमाना होगा
भरपेट न सही, दो वक़्त खाना होगा
मैं श्रमिक हूँ, मेरे कर्म पर
कहीं न कहीं करें जग बसर।
मेरे भाग्य में, धर्म लिखा है
ऐसा ही मेरा कर्म लिखा है।
मुझ पर मेरा भ्रम टिका है
जो बढ़ा रहा मेरा, हौसला भरपूर।
मैने श्रम , करने की ठानी है।
मैने हार कभी नहीं मानी है।।
सड़क पर था सड़क पर हूँ
अपने गाँव से दूर बहुत हूँ ।
रहा मुझे मेरा गाँव पुकार
देख जग में मचा हाहाकार।
बिना मदद के अपने पथ पर
मुस्कान मुख पर, लिए भरकर
करके विपदा से, सामना डटकर
पैदल ही घर जाने की ठानी है।
मैने हार अभी भी नहीं मानी है।
✍संजय कुमार “सन्जू”
शिमला (हिमाचल प्रदेश)