‘हार – जीत’
हार है तभी तो जीत, जगत की ये ही रीत,
अहंकार मारकर, बात को बिसार दे।
हार खोलती है द्वार, जीत का यही है सार,
करो यत्न बार-बार, कर्म को विस्तार दे।
नैराश्य को निकाल दे, कामना को वार दे,
वेदना को छोड़़ कर, श्रम को निसार दे।
हार से हो न भीत, हार भी है तेरी मीत,
उसको भी दुलार दे, हार को भी प्यार दे।। 1
दंभ न कर जीत में, क्षोभ न कर हार में,
हार में भी होती जीत, प्रेम और प्यार में।
खेल के तो दो ही भेद, एक हार एक जीत,
रखो प्रेम और प्रीत, दुखी न हो रार में।
भूल न कर खेल में, जल न मिला तेल में,
रीति को तू ना बिसार, जीत के विचार में।
विचार में हो शुद्धता, आचार में शालीनता,
कर्मण्यता ही खेल है, क्या रखा है वार में।।2
-गोदाम्बरी नेगी (हरिद्वार)