हाँ, ये आँखें अब तो सपनों में भी, सपनों से तौबा करती हैं।
इस क्षितिज का चाँद, जब भी अक्स से मेरे आ मिलता है,
दर्द भरी आँखों में, सुकून का एक पल खिलता है।
सहलाती हैं हवाएं, परछाइयों को मेरे कुछ इस क़दर,
की बंद सुरंग से बरसों बाद, निकला कोई जिन्दा परिंदा है।
बेचैनियों से भरा ये शोर, जो हर क्षण में मुझसे जुड़ता है,
इन बादलों की मुस्कराहटों में, वो भी खामोशी में पिघलता है।
अँधेरी राहें तो यहां भी, क़दमों से मेरे आ लिपटती हैं,
पर जुगनुओं की मटरगश्तियाँ, मेरे कारवां को रौशन किये रहती हैं।
छूती नहीं नींदें पलकों को मेरे जब,
इस शहर की चादर ओढ़े, परेशानियां भी बेहोशी में सोती हैं।
मुलाक़ातों का वो धुंआ, यादों में चुपके से आ जगता है,
अनजाने में हीं मुस्कराहट बनकर, जो लबों को मेरे आ ठगता है।
वो साथ जो कभी किस्मत के, सदके में अलविदा कहती है,
गर्माहट उसकी आज भी, इन फ़िज़ाओं में मिला करती है।
हाँ, ये आँखें अब तो सपनों में भी, सपनों से तौबा करती हैं,
पर एक बार फिर से, ये शहर मुझसे जिंदगी के काफिये किया करती है।