हर तरफ़ घना अँधेरा है।
हर तरफ़ घना अँधेरा है, ये कैसा नया सवेरा है,
चीख़ों की नुमाईश है, और दरिंदगी का बसेरा है।
बहारें हुई हैं शर्मिंदा, कि फूलों में खुशबू क्यों बिखेरा है,
रौंदी जाती हैं क्रूरता से, ये जहां ऐसा लुटेरा है।
सहलाते नहीं हैं यहां दर्द को, अब तो हवस की नयी परिभाषा को उकेरा है,
मृत्युशैय्या भी बेहतर लगती है, ऐसे दानवों ने रूह को निचोड़ा है।
जग दीपक जलाये बैठा है, कि कहीं तो इंसाफ का कोई डेरा है,
पर ये द्वापर का काल कहाँ, जो स्वयं कृष्ण ने महाभारत को छेड़ा है।
बेबसी है अपनों की आँखों में, और असहनीय मर्म ने हृदय के तरेरा है,
हैवानियत की चरम खाई में गिरा, जो अंश वो तो मेरा है।
सवालों का बवंडर है पर, जवाबों ने मुकता के कफ़न को बिखेरा है,
ये कैसे युग का आह्वाहन है, जहां संवेदनाओं ने स्वयं से मुँह फेरा है।
हर तरफ़ घना अँधेरा है, ये कैसा नया सवेरा है,
चीख़ों की नुमाईश है, और दरिंदगी का बसेरा है।