“सूखा”
सूखी हुई धरती
निहारती दरारें
झुलसी हुई दूब
वृक्ष की जगह ठूँठ
झरते परिन्दा
मिलते ना जिन्दा
जमीन पर बिछी लाशें
गिद्ध की डरावनी आँखें
प्रकृति के रौद्र रूप
दिखते खूंखार खूब
अदृश्य जल की बून्दें
प्यास से तड़पते मानव
उत्पात मचा रहा सर्वत्र
जैसे कोई महा-दानव।
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति