सुर्ख बिंदी
सुर्ख बिंदी
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अपनी दोनों आँखों में
भर कर
तुम्हारे साथ के सपने
तुम्हारी सुबह
तुम्हारी शाम
उनके ठीक बीच में
लगा ली लाल सुर्ख बिंदी
लेकर तुम्हारा नाम
सुबह देखा रोज
उन सपनों को उगते हुए
बिस्तर की महकती सिलवटों पर
मेरी पलके करती ही रही
रोज इंतिज़ार
सपने अधूरे रहे
मायूसी के बढ़ते रहे आकार
मैं सजाती रही
अपनी आंखो में
तुम्हारे लिए
अपने प्यार का सिंघार
तुम बढ़ाते रहे
उपेक्षाओं का दायरा
अस्तित्व में सब रहा
न रहा तुम्हारा प्यार ।
– अवधेश सिंह