सुनो पहाड़ की…!!! (भाग – ९)
यह सब सोचते हुए मैं स्वयं को नींद की आगोश में जाता महसूस कर रही थी। साथ ही सोच रही थी कि पहाड़ क्या सचमुच बदल गये हैं। यदि हाँ, तो यह बदलाव क्या और कैसा है? इस पर सोचते हुए मानो मैं पुनः पहाड़ से वार्तालाप करने लगी। पहाड़ कह रहा था कि तुम जो मुझे इतना पसंद करती हो, मुझसे इतना लगाव रखती हो कि मेरे सानिध्य में तुम्हें असीम सुख, शान्ति व प्रसन्नता महसूस होती है, कभी सोचती हो उन असंख्य मनुष्यों के विषय में जो तुम्हारी ही भांति मेरी ओर खिंचे चले आते हैं।
इन सबका कारण है, हमारी जलवायु, हमारा वातावरण जो प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। मानव निर्मित शहरी वातावरण की हलचल व चकाचौंध भरे कोलाहल से अलग है। प्राचीन काल से ही यह सब न केवल इतना शान्त, निर्मल व स्फूर्ति – दायक था, अपितु वर्तमान समय में भी अन्य बड़े नगरों से विपरीत स्वयं में अत्यन्त नैसर्गिक सौन्दर्य से परिपूर्ण एवं मनमोहक है।
वर्षों पूर्व इन पहाड़ी स्थानों पर यात्रा करना इतना सरल व सहज नहीं था कि कोई भी जब चाहे यहाँ मनोरंजन हेतु चला आये।
लोग यहाँ आते अवश्य थे, निवास भी करते थे। किन्तु विकास के नाम की अंधी दौड़ तब नहीं थी। पहाड़ का वह रूप अब से पहले अधिक मनोहर, शान्त व शोर से दूर था। कभी कुछ मनुष्य आत्मिक शांति की तलाश अथवा स्वयं को ईश्वर की परमसत्ता का साक्षात्कार कराने के उद्देश्य से यहाँ आते थे। यहाँ की जलवायु तब शुद्ध व प्रदूषण रहित होती थी। जंगल घने व मनोहारी दृश्यों से परिपूर्ण होते थे। पशु-पक्षी निडर होकर इस प्राकृतिक वातावरण में निवास करते थे। यह उनका अपना आशियाना था, जहाँ मनुष्यों का हस्तक्षेप इतना अधिक नहीं था। जो मनुष्य यहाँ रहते भी थे, वे प्रकृति से संतुलन बना कर चलते थे। वे जानते थे कि यह प्रकृति रक्षण व संरक्षण अपनी संरचना के अनुरूप समय पर करना जानती है।
किन्तु अब यह वातावरण परिवर्तित हो रहा है और इसका सबसे बड़ा कारण है मनुष्य की बदलती मानसिकता, विकास व प्रगति के नाम पर उसके द्वारा प्रकृति का दोहन। मनुष्य भूल रहा है कि जिस प्राकृतिक संपदा का दोहन कर वह प्रगति की अंधी दौड़ दौड़ रहा है, वही प्राकृतिक संपदा एवं संसाधन स्वयं उसके अस्तित्व के भी संरक्षक हैं। यदि यह प्राकृतिक संपदा, ये नदियाँ, पहाड़, वन, जीव-जन्तु, शुद्ध प्राणदायनी वायु सहित प्रकृति के अन्य असंख्य सजीव-निर्जीव घटक मिलकर इस सम्पूर्ण संसार का निर्माण न करें तो स्वयं मनुष्य का अस्तित्व भी कहाँ होगा? किन्तु मनुष्य तो उन्नति पथ पर बढ़ते हुए अन्य सभी घटकों को महत्वहीन समझ जाने-अनजाने उनकी अवहेलना करता चला रहा है। उसे जीवन हेतु शुद्ध वायु, शुद्ध जल व शुद्ध वातावरण की आवश्यकता है।
किन्तु इन सबके विनाश का स्रोत भी तो स्वयं उसी का अंधा स्वार्थ है। शांत एवं सौन्दर्यपूर्ण पहाड़ी स्थल प्रगति की दौड़ में इस तरह सम्मिलित किये गये कि मनुष्य ने यहाँ सड़कों के निर्माण सहित रहन-सहन व आवागमन सहित अपने अस्तित्व एवं मनोरंजन सहित तमाम सुविधाओं को जुटाने हेतु पहाड़ पर जंगल व पहाड़ का अन्धाधुंध कटाव किया। विभिन्न उद्देश्य लेकर यहाँ आने
वाले मनुष्य अपनी-अपनी आवश्यकतानुसार यहाँ विकास के बहाने वातावरण को प्रदूषित करते चले गए। जिस ओर अब तक किसी का भी ध्यान नहीं गया। पहाड़ की तलहटी से लेकर ऊपर चोटी तक नजर डालिए, हर स्थान पर गन्दगी दिखाई देती है। ऊँचे-ऊँचे तरक्की के टावर देखे जा सकते हैं। पहाड़ काटकर बने रास्ते भी दिखते हैं, परन्तु नहीं दिखता तो पहाड़ का नैसर्गिक सौन्दर्य। आखिर कहाँ गया वह सौन्दर्य?
यहीं है पहाड़ की व्यथा, आज जिस पहाड़ को देखते हैं, जहाँ भ्रमण करते हैं, वह तो जंगलहीन है। मानो वस्त्रहीन कर दिया गया है। यही है प्रकृति और पहाड़ की व्यथा, उसका वर्तमान स्वरूप। क्या इसे ही निहारने व इसका आनन्द लेने तुम यहाँ खिंची चली आती हो या तुम्हें तलाश है उस पहाड़ की जिसका अस्तित्व वर्तमान प्रगति की अंधी दौड़ में कहीं विलीन सा हो गया है? काश, तुम उस पहाड़ से मिल पातीं, उसे जान पातीं तो तुम्हारे आनन्द की सीमा का स्वरूप ही कुछ अलग होता। परन्तु अफसोस, तुम मनुष्यों ने उसे नष्ट
कर दिया है।
(क्रमशः)
(नवम् भाग समाप्त)
रचनाकार :- कंचन खन्ना,
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत)।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार)।
दिनांक :- १८/०८/२०२२.