सिसकियाँ
सुनाई देती है अक्सर
दोपहर में
नदी की सिसकियाँ,
सूख चुकी है वह
गहराई तक
कहीं नहीं है उसमें
जरा सी भी आर्द्रता,
वह बहुत तपती है
दहकती है,
उसमें रेत तक भी
नहीं दिखती है।
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
सुनाई देती है अक्सर
दोपहर में
नदी की सिसकियाँ,
सूख चुकी है वह
गहराई तक
कहीं नहीं है उसमें
जरा सी भी आर्द्रता,
वह बहुत तपती है
दहकती है,
उसमें रेत तक भी
नहीं दिखती है।
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति