साहित्य स्वरूप
*वर्तमान में साहित्य *
साहित्य एक व्यापक शै है। जिस प्रकार सृष्टि त्रिगुणात्मक स्वरूप लिए है उसी प्रकार साहित्य भी सकारात्मक,नकारात्मक एवं निर्विकारात्मक होता है। साहित्य आंतरिक मनोभावों का प्राकट्य रूप ही होता है। साहित्य प्राचीन काल से अर्वाचीन तक निर्लिप्त रूप से लिखा जाता रहा है,परंतु सीमित माध्यम होने की वजह से उसका प्रसार भी सीमित होता था।
वर्तमान में अणुक युग में अंतरजालिक माध्यम तीव्रता से उबर कर आये है।जैसे फेसबुक,वाट्स एप, किम्भो,इंस्टाग्राम, और व्यावसायिक साईटस् ..डॉट कॉम… आदि आदि। साथ ही विभिन्न भाषाएं भी सहज रूप से उपलब्ध हुई है।जिसने साहित्य को व्यापक आयाम दिए है।
इस व्यापकता से परिमाणात्मक रूप से साहित्य का विस्तार हुआ है। जिसको हम लाभ हानि की तराज़ू में नहीं तौल सकते। कारण लाभ हानि एक सीमित परिप्रेक्ष्य में एक निर्देशात्मक आधार को लेकर किया गया मूल्यांकन मात्र है।फिर भी हम मूल्यांकन करना ही चाहें तो साहित्य की लाभ और हानि के आकलन के लिये हमें एक आधार लेना होगा।और यह आधार हम लेते है ,सोसियल मीडिया पर रचा गया साहित्य एवं उसके प्रभाव
लाभ और हानियाँ
सोसियल मीडिया पर रचे गए साहित्य को सर्वप्रथम हमें लाभ के संदर्भ में तीन दृष्टि से देखना होगा।
प्रथम*- लेखक -लेखक प्रायः चार प्रकार के होते हैं। सृजक, चोरक, अनुवादक,प्रसारक।
सृजक लेखकों के लिये यह ई माध्यम नये नये आयाम लेकर प्रकट हुआ है, जिस से समय बचाकर लेखक साहित्य का सृजन कर सकतें हैं।लिखना एवं संशोधन के लिये मिटाना और पुनः लिखना आसान हैं। कागज़ और स्याही की अनिवार्यता भी नहीं हैं। सुविज्ञ विद्वानों से सहज सम्पर्क करके लेखन को धारधार बना सकतें हैं। पूर्व में लिखे गये वैश्विक साहित्य का पठन सहज रूप से करके उसका सहयोग अपने सृजन में ले सकतें हैं। अपने सृजन का तुलनात्मक आकलन ,संकलन या विश्लेषण कर सकतें हैं।।टँकण के भी फॉण्ट एवं कलात्मकता उपलब्ध है,जिससे खराब हस्तलिपि जनित दोष से मुक्त हुआ जा सकता है।साथ ही उसके प्रकाशन के लिये उन्हें सहज ही अपने अनुकूल प्लेटफार्म ( पटल)मिल जाते हैं। जिस से वो सीधे अपने पाठकों से सम्पर्क में आ जातें हैं।और अत्यल्प समय में पाठक की प्रतिक्रिया से रूबरू हो जातें हैं ।इसके आधार पर अपने आर्थिक अनार्थिक सम्बन्ध भी वो अपने पाठकों से बना सकतें हैं। लिखित साहित्य के साथ साथ वाचिक साहित्य ऑडियो वीडियो के माध्यम से भी अपनी प्रस्तुति देकर अपना एक मुकाम हासिल कर सकतें हैं।
चोरक.-
इस प्रवृती के लेखकों को भी प्रचुर मात्रा में साहित्य मिलता है,जो जितना अपने इस हुनर में प्रवीण होता है वह उतना स्वहित तराश सकता है।क्यों कि नवोदित से लेकर प्रतिष्ठित लेखकों की लेखनी उनको सहज उपलब्ध हो जाती है।जिसमे वह ज़रासी काट छाँट कर के अपने नाम से प्रस्तुत कर इच्छित मान सम्मान कमा सकतें हैं।
अनुवादक एवं समीक्षक :-बहु भाषी लेखकों के लिये भी इस माध्यम में प्रचुर मात्रा में साहित्य उपलब्ध रहता है जो अपनी क्षमताओं का उचित उपयोग कर अनुवादक समीक्षक के रूप में अपनी पहचान बना सकतें हैं।और साहित्यकर्म में अपना योगदान दे सकते है।
प्रसारक:-इस प्रकार के लेखक अपने विचारों के अनुकूल सामग्री का संकलन कर प्रचार प्रसार कर सकते हैं।और अपनी पहचान बना सकते हैं।
द्वितीय* -प्रकाशक:-संकलक,प्रसारक
प्रकाशक की दृष्टि से हम देखे तो साहित्य इतनी प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा है या उपलब्ध है ,कि प्रकाशक कार्य कोई कठिन प्रतीत नहीं होता। सीधे लेखक से सम्पर्क करके उत्कृष्ट साहित्य का या अपने गुणग्राहक पाठकों के हिसाब से रचनाये संकलित करके प्रकाशन कार्य किया जा सकता है। व्यापक पटल होने से पुस्तकों को सहेजना एवं बेचना भी आसान है। साथ ही प्रकाशन की गुणवत्ता में भी यह माध्यम आवश्यक एजेंसी मेम्बर्स से सम्पर्क कर सकते है। एवं अपने प्रकाशन का नाम ,दाम और काम तीनो का लाभ प्राप्त कर सकते है। और सतत एवं व्यापक प्रतिक्रिया से भी अत्यल्प काल में लाभान्वित हो सकते है। अपने आर्थिक अनार्थिक संबन्धों को विस्तार दे सकते है।
प्रसारक:- अपने अनुकूल साहित्य सामग्री का प्रचार प्रसार करके लेखक एवं स्वयं के ब्रांड को अधिक से अधिक व्यक्तियों तक पहुँचाने में अपना योगदान दे सकते हैं।
तृतीय -पाठक 1शिक्षार्थी 2.समय साधक 3.समीक्षक
साहित्य के लिये पाठक से बढ़कर कोई नही होता ठीक उसी तरह से जैसे जंगल में नाचने वाले मोर का बिना दर्शक के कोई ओचित्य नहीं होता उसी प्रकार बिना पाठक के साहित्य का भी कोई ओचित्य नहीं है।अतः पाठक ही साहित्य की महत्वपूर्ण कड़ी होता है ।
शिक्षार्थी साहित्य के विभिन्न स्वरूपों को पढ़कर उचित ज्ञान प्राप्त कर सकता है।अपनी शिक्षा लब्धि को सँवार सकता है और उसका उपयोग अपने कर्मक्षेत्र में कर सकता है।
समय साधक की दृष्टि से देखे तो अपने खाली समय को भरने के लिये पाठक के पास पर्याप्त मात्रा में साहित्य सुलभ है।वह अपनी जिजीविषा को शांत करने के साथ ही अपने समय की रिक्तता को परिपूर्ण कर सकता है।
तीसरी प्रकार का पाठक पढ़े गये साहित्य की अपनी मति एवं ज्ञान के अनुसार समीक्षा करके लेखक के मनोभावों एवं शिल्प को परिवर्धित कर सकता है।एवं साहित्य में अपना बहुमूल्य योगदान कर सकता है।
पाठक की दृष्टि से देखे तो यह अत्यंत लाभदायक है ।पाठक को प्रचुर मात्रा में अपनी रूचि अनुसार सामग्री पढ़ने को समझने को कम समय एवं कम श्रम में मिल जाती है।
हानियाँ
वैसे तो साहित्य की दृष्टि से लाभ की तुलना में हानियाँ काफी कम है फिर भी प्रत्येक सिक्के के दो पहलू होते है और दोनों बराबर क्षेत्र समेटे हुए। सो हानियाँ भी उतनी ही ही है। जैसे लेखक की दृष्टि से देखे तो किसी भी श्रेणी के लेखक हों बहुतायत होने की वजह से उचित मात्रा में न तो गुणवत्ता वाला लेखन सम्भव हो पाता है और न ही उचित मात्रा में गुण ग्राहक पाठक लेखक को मिल पाते हैं।कभी कभी तो गुणवत्ता एवं शुद्धता की दृष्टि से लेखक दिग्भ्रमित हो जाता है क्यों की हर लेखक प्रवीणता की कसौटी को नहीं पहचान पाता।और निरर्थक विवाद भी उत्पन्न हो जाते है जिनसे परस्पर प्रेम और सौहार्द की हानि हो जाती है। मतभेद निकलकर मन भेद तक उत्पन्न कर देते है,जो वैमनस्यता की हद तक पार कर जाते हैं। दूसरा प्रमाणीकरण की बहुत मुश्किल हो जाता है कौन सत्यवाचक है और कौन असत्यवंचक जिसकी सिद्धि के लिये काफी श्रम,मुद्रा,शांति एवं समय का नुकसान हो जाता है। और प्रतिष्ठित लेखकों को रचनाएँ चोरी होने का डर बना रहता है। नवोदित लेखक चोरी के ज्यादा शिकार होते है उनका कॉपी राइट नहीं होने से सबसे ज्यादा साहित्य चोरी का नुक़सान उन्हें ही भुगतना पड़ता है।कभी साहित्य श्लील और अश्लील जैसे निरर्थक प्रश्नो में उलझकर विवादित हो जाता है।
प्रकाशक की दृष्टि से भी उपरियुक्त कारक ही सामने आते है। प्रकाशन करने के लिये लेखक की लेखनी को परिमार्जित करना दुष्कर कार्य होता है और कभी कभी तो प्रकाशक का संशोधन कार्य लेखक की मूल भावना के भी प्रतिकूल चला जाता है जिसका नुकसान लेखक एवं पाठक को हो जाता है।इसी प्रकार व्यर्थ के विवाद और विधिक समस्याओं का सामना भी प्रकाशकों को करना पड़ता है जो काफी तनाव एवं आर्थिक नुकसान का कारक बन जाता है। पाठकों की दृष्टि से भी पाठक का काफ़ी समय बर्बाद हो जाता है उचित और अनुचित के फेर में पड़कर।और कभी कभी अधकचरे ज्ञान के आधार पर पाठक को अपनी शांति एवं सम्बन्ध गंवाने पड़ जाते है। पाठक को परिमार्जित करने के स्थान पर साहित्य का आधिक्य मतिभ्रम् की स्तिथि में पहुँचा देता है।और वह अपना स्वविवेक लगाकर साहित्य के गलत स्वरूप को आत्मसात ही नहीं करता अपितु दूसरे को भी उसी अनुरूप ढालने की बलात कोशिश करता है।
समग्र रूप से देखा जाये तो साहित्य का अर्धपूर्ण एवं अर्धरिक्त दोनों स्वरूप सामने आते है। आदमी अपनी कुंठाओं , अपनी जिजीविषा ,मनोभावों को निसंकोच रूप से व्यक्त कर आत्मतोष कर पाता है।जिसकी जैसी दृष्टि वैसी छवि इन सामाजिक माध्यम यानि सोसिअल मीडिया में देखने को मिलती है। अर्थात साहित्य के तीनों स्वरूप सकारात्मक,नकारात्मक,एवं निर्विकारात्मक उपलब्ध होते है। और इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि लेखक गौण हो जाता है और उसका कर्म यानि साहित्य प्रमुख हो जाता है। सम्मान उसके लेखन को मिलता है किसने लिखा,यह महत्वपूर्ण नहीं अपितु क्या लिखा यह महत्वपूर्ण हो जाता है और खालिस साहित्य उबर कर आता है ।जिससे स्वविवेक के आधारानुसार आप इसका मूल्यांकन कर आत्मसात कर सकते हैं।
मधुसूदन गौतम