#सामयिक_रचना
#सामयिक_रचना
◆सिंहासन सब देख रहा है◆
【प्रणय प्रभात】
चक्षुहीन धृतराष्ट्र मौन है
ना जाने अब भीष्म कौन है?
धर्मराज पाँसों में उलझे
पांचाली के केश न सुलझे।
अर्जुन गहन सोच में डूबा
क्या समझे कुत्सित मंसूबा?
सुप्त भीम है गदा सिसकती
द्रुपदसुता अनवरत कसकती।
एक नहीं अनगिनत शिखंडी
लाक्षागृह की आग न ठंडी।
जो जयद्रथ है वही अभय है
चक्रव्यूह में पार्थ-तनय है।
राजभवन डेरा व्यालों का,
नित्य विष-वमन शिशुपालों का।
द्रोण मूक हैं कर्ण विवश हैं
भरे रक्त से स्वर्ण-कलश हैं।
पांचजन्य ने स्वर खोए हैं
व्यग्र विदुर, संजय रोए हैं।
कौरव मचा रहे कोलाहल
हुआ हस्तिनापुर भी घायल।
कितने जरासंध हैं मारक
केशव अंतर्ध्यान अभी तक।
शकुनी पाँसे फेंक रहा है
सिंहासन सब देख रहा है।।
★संपादक★
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