साधु की दो बातें
साधु की दो बातें
वेणुपुर नामक गाँव में दो भाई रहते थे। नाम था उनका- दुर्जन और सुजन। दुर्जन जितना दुष्ट था, सुजन उतना ही नेक और सीधा सादा, किंतु वह बहुत ही गरीब था। दुर्जन, सुजन की गरीबी पर खूब हँसता था। वह भले ही दूसरों को रुपया, पैसा आदि उधार में दे देता किंतु अपने छोटे भाई सुजन को फूटी-कौड़ी भी नहीं देता था।
एक दिन सुजन की पत्नी ने अपने पति से कहा- ‘‘क्यों जी हम कब तक इस गाँव में भूखों मरेंगे। यहाँ तो ठीक से मजदूरी भी नहीं मिलती।’’
‘‘तो तुम्हीें बताओ ना कि मैें क्या करूँ।’’ – सुजन ने लम्बी साँस खींचते हुए कहा।
‘‘क्यों न हम शहर चल देते। वहाँ कोई न कोई काम तो मिल ही जाएगा।’’ – पत्नी ने कहा।
सुजन शहर में कोई रोेजगार तलाशने का निश्चय कर अगले ही दिन पत्नी द्वारा बनाई रोटी और गुड़ की पोटली लेकर शहर की ओर निकल पड़ा।
अभी उसने जंगल में प्रवेश ही किया था कि उसे एक कुटिया दिखाई पड़ी। वहाँ एक वृद्ध साधु नीचे चटाई बिछाकर लेटे हुए थे। सुजन को देखते ही साधु महाराज उठकर बैठ गए और कहने लगे- ‘‘सुजन बेटे, तुम कहाँ जा रहे हो ?’’
साधु के मुँह से अपना नाम सुनकर वह चैंका, पर समझ गया कि ये पहुँचे हुए साधु हैं। सुजन ने अपनी राम कहानी सुना दी।
साधु सुजन की परीक्षा लेने के उद्देश्य से कहने लगे- ‘‘बेटा सुजन, मैं पिछले तीन दिनों से कुछ भी नहीं खाया हूँ। यदि यदि तुम अपने हिस्से की एक-दो रोटी दे देते, तो मेरे भी प्राण बच जाते।’’
सुजन ने उसी क्षण पोटली से दो रोटी और थोड़ा-सा गुड़ निकालकर साधु के सामने रख दिया। साधु प्रसन्न होकर कहने लगे- ‘‘बेटा, मेरे पास देने को कुछ भी नहीं हैं, किंतु मेरी दो बातों का सदा ख्याल रखना और जहाँ तक हो सके उनका पालन करना। भगवान तेरी अवश्य सुनेंगे। पहला- यथाशक्ति दुष्ट-जनों की भी सहायता करना और दूसरा- जो कुछ भी कमाओ उसमेेें से कुछ-ना-कुछ अवश्य दान करो।’’
सुजन ने दोनोें बातें मन में गाँठ कर लीं और वह आगे बढ़ गया। अभी थोड़ी दूर ही चला था कि एक पेड़ के नीचे चार-पाँच लोग बैठे दिखाई पड़े। शायद वे डाकू थे। सभी के पास बन्दूकें तथा तलवारें थीं। उन्हें देख सुजन के प्राण सूख गए। वह थर-थर काँपने लगा। इस पर डाकुओं के सरदार ने कहा- ‘‘राहगीर डरो मत ! हम तुम्हें मारेंगे नहीं। किंतु एक शर्त पर।’’
सुजन ने हाथ जोड़ते हुए पूछा- ‘‘क्या’’ ?
सरदार ने उसे कुछ पैसे देकर कहा- ‘‘पास में ही बस्ती है। तुम वहाँ जाकर हमारे लिए कुछ खाने का सामान ला दो।’’
सुजन सोचने लगा- ‘यह तो पाप है। मैं डाकुओें की सहायता क्योें करूँ।’
तभी उसे साधु की पहली बात याद आ गयी और वह राजी होकर गाँव की ओर खाने का सामान लेने चल पड़ा।
थोडी देर बाद जब वह लौटा तो वे सब नदारद थे। वह वहीं बैठकर डाकुओं की प्रतीक्षा करने लगा। तभी उसे पेड़ की डाल से बंधी एक पोटली दिखाई दी। वह पोटली उतार कर खोलने लगा। उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गयीं। पोटली में सोने-चाँदी के जेवरात थे। साथ में एक पत्र भी था। वह पढ़ने लगा- ‘‘सुजन, तुम्हारे आने से पहले हमें जरूरी काम से जाना पड़ रहा है। इसलिए पत्र लिख रहे हैं। तुम पोटली के जेवरात ले जाना। यह तुम्हारी मजदूरी है।’’
सुजन ने मन ही मन साधु महाराज को धन्यवाद दिया और घर की ओर लौट पड़ा। वह खुशी के मारे उड़ा जा रहा था।
अभी वह अपने गाँव पहुँचने ही वाला था कि एक भिखारी उससे पोटली माँगने लगा। उसे पहले तो लोभ के भूत ने धमकाया पर साधु महाराज की दूसरी बात याद आते ही सुजन ने पोटली से एक सोने का कंगन निकालकर भिखारी दे दिया। प्रसन्न होकर वह बोला- ‘‘जीते रहो बेटा, तुम्हारा धन रोज-रोज बढ़ता रहे।’’
घर पहुँचते ही उसने सारी बातेें अपनी पत्नी को सुना दी। वह भी मन ही मन साधु महाराज को भगवान का अवतार मानकर प्रणाम करने लगी।
अब उसका धन सचमुच रोज-रोज बढ़ने लगा।
दुर्जन ने जब उसे अमीर होते देखा तो वह भी राज जानने के लिए अपनी पत्नी को सुजन के पास भेजा। सुजन ने अपनी भाभी को सब बातें सच-सच बता दीं।
सुजन भी दूसरे दिन साधु की तलाश में चल पड़ा। थोड़ी दूर चलते ही साधु महाराज भी मिल गए, किंतु दुर्जन से रोटी माँगने पर उसने रोटी नहीें दी और न ही उनकी बातें सुनी। वह तो शीघ्रातिशीघ्र डाकुओं के पास पहुँच कर इनाम लेना चाहता था।
थोड़ी ही देर में उसे वे डाकु भी मिल गए, किंतु जब वह खाने का सामान लेने नहीं गया और गाँव में उनका पता बता देने की धमकी देने लगा तो डाकुओं ने उसे खूब मारा।
अब दुर्जन के पास खाली हाथ लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था।
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़