सांझ का शृंगार
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रोज मचलती है साँझ करने शृंगार।
रोज खाती है मुंह की होने से अंधकार।
सिसकती है रोज,रोज झिझकती है वह।
युवा हो जाती है ऐसी पीड़ाओं को सह।
रात उसे झटककर बढ़ जाती है आगे।
चाँद ढूंढने हेतु उसके पीछे भागे-भागे।
साँझ अकेली न कोई संगी न साथी।
न अपना न पराया न ही मुलाकाती।
तम और प्रकाश के मिलन की खुशी।
जानती है वह उसकी नहीं है ये हंसी।
साँझ का जीवन अत्यंत ही छोटा है।
जीवन का प्रत्येक क्षण भी खोटा है।
साँझ चाहती है कि बने युवा औरत।
उसे भी मिले सुन्दरता का शोहरत।
किन्तु,हर दिन अरमान टूट जाता है।
उसका सर्वस्व रोज ही छूट जाता है।
उसे सपने आयें तो आने दीजिये।
सपने में सारा सुख पाने दीजिये।
वह आवारा नहीं है वह अबला है।
तम-प्रकाश के मिलन की सरला है।
वह आशान्वित है भविष्य है सुखद।
इसलिए जी लेती है सारा दु:ख,दर्द।
अस्तित्व तो है स्वतंत्र भी है पूरा।
कुछ तो है बना देता है जो अधूरा।
काश! निरीह नहीं होती औरत सी।
रास्ते दिखाती या अरि को जलाती।
जो उसके पास वह्नि का प्रकाश होता!
जो उसके पास आधा अंधकार न होता।
चमकती,दमकती ज़ोर-ज़ोर हँसती।
कर शृंगार सोलहों सजती-धजती।
लौटते हुए पशु,पखेरूओं से धूल धूसरित होती है वह।
नभ तक ऊँचे उठे शोर हों, विचलित नहीं होती है वह।
धूमिल संध्या के अंत:करण की अद्वितीय बेटी साँझ।
पहाड़,वन,रेगिस्तान सब पर उतर छा जाती जिद्दी साँझ।
पुरुष के सान्निध्य को युगों से प्रार्थनारत भोली साँझ।
टकटकी लगाए देखती है हसरत में डूबी निबोली साँझ।
सारा विश्व लगता सब-कुछ समेटने उसकी आहट सुन।
कि प्रभु ने कहा हो,सृष्टि के प्रलय की सुगबुगाहट सुन।
भय फैलता हुआ उसके अस्तित्व को कर देता डरावना।
स्तब्ध हो जाती है बेटी सी जब होता है इनसे सामना।
अवांक्षित बेटी सी मानो,सृजन के द्वार पर वह खड़ी।
प्रलय को देने मात सृष्टि रचने मातृवत वह हुई अड़ी।
साँझ को सूर्य के बिखर जाने तक रहना है यूं ही यहीं।
ऐसे साँझ को नमन है कोई असमंजस या ‘किन्तु’ नहीं।
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