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18 Oct 2020 · 1 min read

सरिता

सरिता की कल कल करती ये धारा
चट्टानों से टकराती है ,आंधी तूफानों में भिड़ जाती है।
पर्वत से निकल मैदानों में बह सागर में मिल जाती है।
सरिता की कल कल करती ये धारा
कोमल सी है ये जैसे पंखुड़ी है गुलाब की
निर्मल सी है जैसे बारिश है फुहार की
सरिता की कल कल करती है ये धारा
धरा पर जब गिरती है ,देश की माटी पावन हो जाती है।
खेतों में जब जाती है ,बंजर जमी को हरियाली में खिलखिलाती है।
सरिता की कल कल करती ये धारा
ठंडी हो या गार्मी कभी न थकती ,कभी न रुकती
खुद को कष्ट देकर दूसरों के कष्ट सहती है।
सरिता की कल कल करती है धारा
प्यासों की प्यास बुझाती एकता का परिचम है लहराती
सरिता की कल कल करती ये धारा
काव्य की है यह पावन सरिता।
ईश्वर की है यह अद्भुत रचना कैसे भी हो हालात धरा पर ये निर्मल सी बहती है।
सरिता की कल कल करती ये धारा

मेरी इस कविता में यदि आपको लगता है कि कोई गलती हुई है या इसमें कोई और सुधार हो सकता है तो कृपया मुझे बताइए।
शुक्रिया ??

Language: Hindi
7 Likes · 1 Comment · 545 Views
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