सब्र
“सब्र बरसों का इक पल में जाया हुआ।
माज़ी था, सामने वो दबाया हुआ।
आलमे बेबसी थी,वो कुछ इस कद्र,
इक अकेला किनारा, डूबाया हुआ।
दोहराया गया, फिर से मंज़र वही,
कैद था जो कही, छटपटाया हुआ।
याद कैसे भला, छूट जाती कहो,
दिल से इक-इक था, लम्हा बिताया हुआ।
भीगे कागज़ सी थी, जिन्दगी जो मिली,
जो लिखा था,मिला वो मिटाया हुआ।
जिन शरारों को था दफ़्न हमने किया,
बन धुआं उठ गया गम बुझाया हुआ।”