सपना
मैं नगमा कोई अब गुनगुनाने लगी हूं,
तुम्हें देख फिर से मुस्कुराने लगी हूं।
मेरे चेहरे की रंगत निखर सी गई है ,
मैं बालों में अब गजरा लगाने लगी हूं।
आइने के आगे मैं जाती नहीं अब,
तेरी नजरों से खुद को निहारने लगी हूं ।
किस्सा, गजल या गीत हो कोई तुम ,
मैं होठों पर तुमको सजाने लगी हूं।
न रस्में न कसमे न वादों का बंधन,
अपने हृदय में तुमको बसाने लगी हूं।
मैंने कहा कब कि मंजिल बनो तुम,
तेरी गलियों से होकर मैं जाने लगी हूं।
आसान न होगा कभी मुझको भुलाना,
तुम्हारी सांसों में मैं भी समाने लगी हूं।
ये कैसे सपने मेरी आंखों ने देखें ,
मैं हकीकत में उनको आजमाने लगी हूं ।
लक्ष्मी वर्मा ‘प्रतीक्षा’
खरियार रोड, ओड़िशा