सनम
ओ सनम
क्यों फेर ली
फिर से निगाहें
नेह नयनों मे
पिघलकर
अश्रु बनकर
पूछता चुपचाप
कैसे सो रहे हो?
अर्द्धरजनी में
बेचारा
करवटें ले
प्रेम की मीठी सुखद
सी स्मृति लेकर
जग रहा है
स्वयं पर
वो हंस रहा है।
पूछता मै कौन
किस पथ चल रहा हूं
कौन सी मंजिल
कहां पर है ठिकाना
सोचता है
रोकता है
स्वयं के इस कृत्य पर
वो हंस रहा है।
हर दिवस
स्नेह को उर से भगाकर
आत्मा से प्रेम की छाया
मिटाकर
घृणा का फिर
साथ पाकर
नेह ,घृणता
के परस्पर युद्ध मे
नेह शक्ति के अपरिमित
र्शौय से
डरकर
पराजित
हार थककर
तड़पकर
कुछ बिलखकर
नवजात शिशु की भांति
घुटनों बल
खिसककर
सिसकियों को साथ लेकर
मात जैसी
गोद पाकर
लोरियों और थपकियों का
साथ पाकर
हूं सुरक्षित
उर वही है
मन वही है
आत्मा चिन्तन
वही है
सोचकर
वो लौट आता।
रचयिता
रमेश त्रिवेदी
कवि एवं कहानीकार