सच का कोई मूल नही है (नवगीत?
नवगीत –5
सच का कोई मूल नही है।
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धूप सेंक कर
झर जायेगा
सच कनेर का फूल नही है ।
झाँक रही
पूरब से संध्या
भावी का आश्वासन पाकर
खलिहाने में
खेल रहा है
मटमैला तन ढांक दिवाकर
देख रुआंसी
नई सभ्यता
दीवारों की फटी बिवाई
बूढ़ी अम्मा
ढांक रही है
सच कड़वा पर सूल नही है ।
परखच्चे
तक सुबक रहे है
बूढ़ेपन से होकर चोटिल
भिनसारे से
खींच रहे हैं
बाबू वही पुरानी सइकिल
मुंह फैलाए
घर के खर्चे
बाट जोहते है बटुए का
जिम्मेदारी
का ये बोझा
अब उनके अनुकूल नही है ।
निजी स्वार्थ की
बैसाखी पर
झूठ अकड़ता पाकर आदर
सच का आयुध
भेद रहा नित
मृषा निशा की विस्तृत चादर
संबल की
पगडंडी पकड़े
अनुमानों संग बढ़ता जाता
बेसुध ,निर्भय
शांतिप्रिय इस
सच का कोई मूल नही है ।
~रकमिश सुल्तानपुरी