संस्कार
संस्कार
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संस्कार की बेड़ियां ,वो नहीं लांघती,
मर्यादा ही गहना हे नारी का—
रीति रिवाज वो अपने नहीं भूलती।
चलती उन पद चिन्हों पर वो,
जिसमें चले पूर्वज अपने–
चाहे जमाना बदल गया,
उड़ती है ऊंची उड़ान,
वो करती है पूरे सपने।
पर!जकड़ी हे नारी अपने ही संस्कारों में,
अपनी परम्पराओं का वो रखती मान–
तभी तो बेमिसाल है ,
भारतीय संस्कृति जगत में।
करती है अपनों के लिए,
अपनी खुशियों का बलिदान!
सहनशीलता की होती जो मूर्ति–
कभी भी अपनी जुबां से,
नही करती वो बखान—-
हंसकर है!सब सहती,सारे दुख पी जाती–
कभी किसी से नहीं शिकायत–
अपनी आन के लिए,
वो सब कुछ हे सह जाती!!
ऐसे ही नारी!को त्याग की देवी,
ममता की मूर्ति नहीं कहते–
हर पीड़ा ,अपनी सुध भुला देती—
वो सभी अपनों के खातिर,
क्या-क्या नहीं सह जाती!!!!
सुषमा सिंह *उर्मि,,