संस्कार और शिक्षा
अभी तक ज्ञात इस समस्त ब्रह्मांड में केवल पृथ्वी ही है जिसपर जीवन है। पृथ्वी के इस जीवन में भी भेद है और वह भेद साधारण नहीं बल्कि असाधरण भेद है और वह भेद है इंसान एवं जानवर का। पृथ्वी ज्ञात जीवों में केवल एक ही प्रजाति ऐसी है जो अपने जीवन को अपने बनाए नियमों से स्वयं संचालित करती है। शेष अन्य सभी प्राणी प्रकृति के अनुसार जीवन जीते हैं।
अब सोचने की बात है कि इंसानों में यह भेद आया कहाँ से उनमें यह जाग्रत कैसे हुआ और फिर जाग्रत होने के बाद भी यह सतत रूप से आगे ही बढ़ता चला आ रहा है क्योंकि जन्म लेने वाला प्रत्येक इंसान तो वैसा ही है जैसा आदिमानव था या जानवर होता है। वास्तव में यही भेद ही इंसानों को अन्य जानवरों से विशेष बनाता है जिसका मुख्य कारण है इंसानों द्वारा अपनी दैनिक खोजों को सुरक्षित रखना और फिर उनको आने वाली पीढ़ी को प्रदान करना। जबकि जानवर ऐसा नहीं कर पाते हालांकि उनके भी जीवन के अपने अनुभव होते हैं किंतु वो उन अनुभवों को अपनी नई पीढ़ी को प्रेषित नहीं कर पाते बल्कि उनकी नई पीढ़ी उन्हीं अनुभवों को अपने प्रयोग से ही महसूस करती है। इसके साथ ही जनावरों में यह भी क्रिया है कि प्रत्येक जानवर अपने अनुभव को अपने तक ही सीमित रखता है जबकि इंसान अपने अनुभव को अपनी संतान के साथ साथ समस्त संसार में उसको साझा करता है। जिससे केवल एक दो इंसान ही नहीं बल्कि समस्त संसार उस अनुभव का लाभ ले सके।
अब प्रश्न आता है कि यह साक्षा करने का तरीका है और इसे कहते क्या हैं..? अपने अनुभावो को साझा करने के तरीके को ही संस्कार कहते हैं। वास्तव में संस्कार किसी भी समाज की अमूल्य धरोहर है जो नई पीढ़ी को उस समाज के अनुकूल बनाती है। इस तरह से देखा जाए तो संस्कार का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति को उसके समुदाय का योग्य सदस्य बनाना है। जिससे वह उस समुदाय में स्वयं को स्थापित कर सके और अपनी बुद्धि, विबेक एवं कुशलता का पूर्ण विकास कर सके। संस्कार ही इंसान को जनावर की श्रेणी से अलग कर सामाजिक व्यक्ति बनाते हैं। संस्कारों के द्वारा व्यक्ति में इंसानियत को जन्म दिया जाता है जिससे किसी भी समाज का उत्थान हो सके।
इसी क्रम में शिक्षा भी किसी भी व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वास्तव में शिक्षा व्यक्ति के अंदर की कुशलता को जाग्रत कर उसे कुशल बनाता है या फिर उसके अंदर किसी अन्य कुशलता का विकास करता है। इसके साथ ही शिक्षा व्यक्ति के अंदर विवेक, समझ, जिज्ञासा को जन्म देता है। इसतरह जहाँ संस्कारों से व्यक्ति सामाजिक बनता है वहीं शिक्षा से व्यक्ति कुशल बनाता है। शिक्षा से व्यक्ति धन अर्जन करता है, नई नई खोजें करता है, नई नई तकनीकी का अविष्कार करता है और फिर संस्कारों का प्रयोग कर वह अपनी इस सफलता को समाज के उत्थान में प्रयोग करता है, जिससे समाज विकास के पथ पर अग्रसर हो। संस्कारो के द्वारा ही शिक्षित और योग्य व्यक्ति अहम, दिखावे, अति भौतिकता और क्रूरता से अलग होकर करुणावान, दयावान और सर्वहितकारी बनता है।
संस्कार और शिक्षा के संतुलित प्रयोग के सबसे अच्छा उदाहरण प्रभु श्रीराम है। जिनमें संस्कार है अर्थात विनम्र है, करुणावान है, दयावान है, सभी का सम्मान करते हैं, सभी से प्रेम से बोलते हैं और अपनी आर्य संस्क्रति का प्रसार करते हैं। वहीं शिक्षा के द्वारा वो कुशल योद्धा बनते हैं और रावण एवं अन्य राक्षसों को मार गिराते हैं। विस्व के महानतम योद्धा होने के बाबजूद भी उनमें तनिक मात्र अहम नहीं उठता, इसलिए रावण के मरने पर वो उसकी चरण वंदना कर उसके ज्ञान को जीवन अनुभव को इसके शरीर के साथ मरने नहीं देते बल्कि उसे प्राप्त कर समाज मे फैलाते हैं।
अगर संस्कार शिक्षा के ऊपर रहें तो एक कुशल व्यक्ति श्रीराम बन सकता है और अगर शिक्षा संस्कारो के ऊपर रहे तो एक कुशल व्यक्ति रावण भी बन सकता है, जिसमें अहम है, क्रूरता है, भौतिकता है, इत्यादि।