श्रृंगार/ गोपी छंद
साथियो,
एक कविता में कभी-कभी दो छंद मिलते हैं, यह कवि की अपनी शैली है ,हमें दूर से लगता है कि कवि ने त्रुटि की है ,पर वह त्रुटि नहीं कवि का अपना मौलिक प्रयोग है ।जैसे
सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता झाँसी की रानी खूब लड़ी मर्दानी वह तो ,झाँसी वाली रानी थी। 16/14 ताटंक ( लावणी) छंद है ,प्रत्येक लाइन में तीन गुरू आना चाहिए पर इसी कविता के एक बंद में वीर छंद 16/15 ( आल्हा) का प्रयोग भी हुआ है जिसका अंत गुरू लघु से होता है।
रानी रोई रनवासों में,16
बेगम गम से थी बेजार,15
उनके कपडे लत्ते बिकते,
थे कलकत्ते के बाजार।
सरे आम नीलाम छापते,
थे अँग्रेजों के अखवार।
कानपुर के जेवर ले लो,
लखनऊ के लो नौ लखा हार।
महाकवि प्रदीप की भारत प्रसिद्ध कविता आओ बच्चो तुम्हें दिखायें 16/13 =29
अंत मे लघु गुरू अनिवार्य हैं।
हिन्दुस्तान की,विराट है ।
इसे प्रदीप छंद के नाम से जाना जाता है। इसी कविता में
देखो मुल्क मराठों का ये,16
यहाँ शिवाजी डोला था।14
मुगलों की ताकत को जिसने,
तलवारों पर तोला था ।
हर पर्वत पर आग जली थी,
हर पत्थर इक शोला था ।
बोली हर हर महादेव की,
बच्चा बच्चा बोला था ।
आगे
ये देखो पंजाब यहाँ का,
हर चप्पा हरयाला है।
यहाँ का बच्चा बच्चा अपने,
देश पै मरने वाला है ।
सभी जगह ताटंक का सुंदर प्रयोग किया है ।
मैथिली शरण गुप्त ने पंचवटी में भी यही प्रयोग किया है।
चारु चँद्र की चंचल किरणें,16
खेल रही हैं जल थल में, 14
पुलक प्रगट करती है धरती16
हरित तृणों की नोंकों से 14
मानों तरु भी झूम रहे हैं, 16
मंद पवन के झोकों से 14
इसमें आगे चलकर वीर ( आल्हा) छंद का प्रयोग भी हुआ है। यथा ÷
कटि के नीचे चिकुर जाल में,16
उलझ रहा था बायाँ हाथ। 15
खेल रहा हो ज्यों लहरों से,16
लोल कमल भौंरों के साथ। 15
आजकल मंचो पर वीर रस के कवि इसी ताटंक छंद का प्रयोग करते हैं, पर बीच बीच में लाइनें बहुत सिकुड़ जाती हैं तब लगता है कि कवि ने त्रुटि की है, छंद बदल गया है,पर यह प्रयोग है जो सांस लेने के लिए जरूरी है।
इसी तरह मैंने भी एक प्रयोग किया है जिसमें टेक दूसरे छंद की है और अंतरे दूसरे छंद के हैं।
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ठंड का प्रकोप
श्रृंगार छंद 16
आदि में त्रिकल द्विकल
अंत में गुरू लघु
गोपी आदि 3+2 अंत गुरू
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साल की हुई विदाई है ।
तुम्हारी याद सताई है।।
रहे कड़कड़ा शीत से दांत।
पेट में सिकुड़ रही है आंत ।
नहाये हुए हमें दिन चार ।
करें क्या गये ठंड से हार ।
चढ़ी सिर पर मँहगाई है ।
तुम्हारी याद सताई है ।
गर्म पानी का नहीं उपाय ।
जायँ हम कहाँ हाय रे हाय।
जेब में नहीं जरूरी दाम ।
खरीदें गीजर अपने राम ।
रुई बिन रोय रजाई है
तुम्हारी याद सताई है।
तुम्हारा रहना संबल खास।
कभी ना ठंड आ सकी पास।
नहीं किंचित जमता था खून।
तुम्हीं लगती कंबल का ऊन।
जनवरी जून बनाई है।
तुम्हारी याद सताई है ।
डाल अदरख हल्दी अजवान।
बनाती तरह तरह पकवान।
नहीं खाली जाता इतवार ।
नई डिस करो सदा तैयार।
पकौड़ा साथ खटाई है ।
तुम्हारी याद सताई है ।
मिला है अभी अभी पैगाम।
अवध में बुला रहे हैं राम।
टिकट का अपना नहीं जुगाड़।
भीड़ होगी भादों की बाढ़।
ऊपरी नहीं कमाई है।
तुम्हारी याद सताई है ।
तुम्हारे बिना तीर्थ बेकार।
अकेले आते कष्ट हजार।
खर्च होता वैसे भरपूर।
मगर हम जाते अवध जरूर।
हाथ कोरी कविताई है ।
तुम्हारी याद सताई है ।
गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश
8/1/23