श्री गीता अध्याय पंचम
अर्जुन बोले…
हे कृष्ण! प्रशंसा करें आप कर्मों से संन्यास की।
संग में देते मुझे शिक्षा,तुम कर्मयोग अभ्यास की।।
दोनों में है परमश्रेष्ठ,कल्याणकर हितयोग्य मुझे।
जो साधन है सर्वश्रेष्ठ,बतलाएं वह विधिवत मुझे।।
बोले श्री भगवान..
कर्मयोग कर्मसंन्यास दोनों ही हैं, कल्याणकारी।
पालन में सुगम कर्मयोग, इसीलिए यह हितकारी।।
सुन अर्जुन!
द्वेष नहीं रखते हैं जो जन,आकांक्षा न होती मन।
संन्यासी ही समझ भले वे करें कर्म योग निर्वहन
क्यों कि
हे पार्थ ! रहित जो सभी राग द्वेष आदि द्वंद्वों से।
हो जाते वह मुक्त सहज ही सुख से, सब भव बंधों से।।
मूढ़ समझते प्रथक-प्रथक होते हैं दोनों ही के फल।
भेद न माने कर्म योग,सन्यास में पंडित ज्ञानी सकल।।
अलग-अलग नहीं दोनों, अलग नहीं दोनों के फल।
तर जाते किसी एक में सम्यक रूप से होकर विमल।।
मिलता है जो धाम ज्ञान योगी को, कर्म योगी को भी।
देखे जो फल रूप एक सम देखे वही यथार्थ को भी।।
कठिन बहुत है त्याग, शरीर से होने वाले कर्मों का।
कर्म योग है सुगम, भगवत् स्वरूप मनन करने का।।
है मन जिसका बश में अपने ,शुद्ध अंतःकरण वाला।
परमात्मा ही जिसकी आत्मा, वह लिप्त न होने वाला।।
जो आसक्ती त्याग परम को,निज कर्म समर्पित करते।
जन वे कमल पत्र सम जल में, लिप्त न पाप में होते।।
आसक्ति को त्याग,पार्थ हे,शरीर, मन,इंद्रिय बुद्धि से।
ममत्व बुद्धि रहित कर्मयोगी तो, सुखी हृदय शुद्धि से।।
कर्मयोगी फल त्याग कर्म के, ईश प्राप्ति सम शांति पाते। वहीं सकाम जन ,फल कामना की ,इच्छा से बंध जाते।।
परमेश्वर ना करें संरचना ,कर्म फल के संयोगों की।
स्वभाव बरतता सब कुछ, कर्म,कर्तापन योगों की।।
सर्वव्यापी तो ग्रहण करें न,पाप और शुभ कर्मों को।
ढंका हुआ है ज्ञान अज्ञान से मोहित हैं सब जन सो।।
जब होता अज्ञान दूर परमात्मा के, तत्व ज्ञान से ।
होता है सच्चिदानंद घन प्रकाशित ,सूर्य समान के।।
संलग्न हुए जो मन बुद्धि से, निरंतर एक मनोवृति से ।
पाप रहित हो ज्ञान परम से ,हुए मुक्त वे पुनरावृति से।।
ऐसे वे ज्ञानी जन,विद्या विनय युक्त, ब्राह्मण में ।
समदर्शी वे भेद न करते,गौ हाथी,कुत्ते ,चांडाल में।।
स्थित है जिनका मन,समभाव में , हानि गुण-दोषों में।
वह जीत लिए जग परमात्मा का, जीते जी कोषों में।।
लगते जो सुख रूप संयोग, विषय इंद्रिय,भोगों के।
रमते नहीं गुणी श्रेष्ठ कभी, जो दुख हेतुक लोगों के।।
हो जाते जो समर्थ ,मृत्यु से पहले ही जीवन में ।
काम क्रोध से उत्पन्न वेग, सहन करें उद्दीपन में ।।
संशय मिटे ज्ञान से जिनके, नष्ट हुए पाप तब उन में।
जन के हित में लगे हुए जो, स्थित वे परमात्मा मन में।।
इति…
ऐसे ब्रह्मवेत्ता प्राणी ही प्राप्त होते शांत ब्रह्म में।
मीरा परिहार ✍️💐