शिलामय हो जाना
तुम जब आए, तो जाना
अहिल्या का शिला हो जाना
और श्रीराम के स्पर्श से
शिला का पुन: जीवंत हो जाना ।
एक तुम्हारे आने से पहले
मुझे पता भी न चला
समय के आघात सहते-सहते
मैं कब शिलामय हो गयी ।
जब कोई निष्ठा, समर्पण
सन्देह की तुला में रखा जाता है
या आशाओं, स्वप्नों को छीन
परिवार समाज के प्रति
उत्तरदायित्वों की दुहाई देते
तुम्हारी सोंच को दर किनार कर
अनैच्छिक जीवन का भार
ताउम्र वहन का दंश दिया जाता है
तो समय पारिस्थिति अनुकूलन हेतु
उसे पाषाण बना देता है ।
जब महर्षि गौतम ने
माँ अहिल्या की निष्ठा, समर्पण को
दरकिनार कर
इन्द्र की अपवंचना का दण्ड
निर्दोष, निरपराध माँ को दे
उनका परित्याग कर दिया होगा ।
माँ अहिल्या सभी से प्राप्त
इतने कुटिल प्रहारों को
सह सकने की सामर्थ्य जुटाने में
शिलामय हो गयीं होंगी ।
इन्द्र की उस अपवंचना ने पुनः
कितनी बार माँ के तन मन को
ज़ार ज़ार किया होगा,
उससे भी अधिक उनके पति
जो उनके जीवन का आधार थे,
उनकी स्वयं के प्रति अवहेलना
दाम्पत्य वचन को तोड़
संकट में स्वयं को विलग कर,
त्याग, प्रस्थान कर जाना
कैसे सहा होगा माँ ने ?
शायद यही आघात
उन्हें जड़, शिलामय कर गया ।
करूणानिधान प्रभु श्रीराम के
माँ की पीड़ा, निर्दोषता अनुभूत कर
श्रृद्धा व आत्मीयता भरे स्पर्श ने
उन्हें पुनर्जीवन दिया ।
कोई दिव्य सतोगुणी आत्मा ही
अहिल्या आत्मा को
सचेतनता प्रदान कर सकती है ।
तभी तो युगों तक माँ
प्रतीक्षारत ही रही श्रीराम के लिए ।