व्यथा – स्त्री मन की ( डायरी )
व्यथा – स्त्री मन की ( डायरी )
मैं स्त्री हूँ ….
हाँ, मैं वही स्त्री हूँ,
जिसे इस पुरूष प्रधान समाज ने,
हमेशा हीं प्रताड़ित किया है |
हाँ, वही समाज जिसने,
मेरे प्रति अत्याचार किया,
व्यभिचार किया और,
मेरी इस दयनीय स्थिति का
पूर्णत: ज़िम्मेदार भी है |
वह समाज मेरा अपराधी है,
और मैं उससे पीड़िता,
फिर भी हर बार, बारम्बार
लान्छन मुझ नि:स्पृह पर हीं लगाया गया
और अपराधी भी मुझे हीं ठहराया गया |
जिसने मेरा शील भंग किया,
मेरे मन का मर्दन, सम्मान का हनन किया,
आज वही पुरूष प्रधान समाज
मुझे चरित्रहीन बता रहा हा,
और अपनी वासना का कलंक
मुझ निर्दोषा पर लगा रहा है |
क्या कभी सोचा है ….
कोई स्त्री कभी स्वेच्छा से
क्या चरित्रहीन बनी है ?
नहीं … कभी नहीं …
ऐसा कभी नहीं हुआ |
फिर उसे ऐस अवस्था में कौन लाया ?
चुप क्यों हो…?
क्या जानते नहीं ..
य़ा फिर बोलना नहीं चाहते |
मैं बताती हूँ….
मुझे ऐसा बनाने वाला
ये पुरूष प्रधान समाज हीं है |
यहाँ के कुछ दिखावटी
चरित्रवान पुरूष,
हाँ वही चरित्रवान पुरूष जो
सबके सामने अपने चरित्र का ढ़िंढ़ोरा पिटते हैं
और मौका मिलते हीं
मेरी बेबसी का लाभ उठाने से नहीं चुकते हैं
और मेरे जीवन को नारकीय,
लाचार और दयनीय बना
हमें छोड़ जाते हैं |
उन्हे अपराध-बोध हुआ क्या ..?
नहीं… कभी नहीं …
और तो और, अपने अपराधों को
मुझ पर हीं थोप देते हैं |
सोचती हूँ .. क्या ..
केवल वे हीं दोषी हैं ….
मेरे प्रति हुये सभी अपराधों का |
नहीं मुझे ऐसा नहीं लगता ..
अगर वे अपराधी हैं तो
हम भी सहभागी हैं …
क्योंकि हमने उनका विरोध क्यों नहीं किया
क्यों अब तक मैं हीं मौन थी …
क्यो अब तक कुछ नहीं किया ?
उस समय ये अत्याचार छुपे हुए थे,
चहारदिवारों में, पर आज
आज जब खुलेआम,
सड़कों पर दरिन्दगी देखती हूँ,
स्वयं को भी अपराधी मानती हूँ |
क्योंकि काश ! जननी का फर्ज़ निभाया होता,
और नारी के सम्मान का संस्कार सिखलाया होता,
परायी स्त्री में माँ, बहन और बेटी दिखलाया होता,
तो, हाँ तो, शायद आज ऐस समाज में,
हम स्त्रियों की ये दुर्दशा ना होती |
काश ! मैने उसी दिन आवाज उठायी होती,
पुरूषों को उनके अस्तित्व का पाठ पढ़ाया होता,
उन्हे उनकी औकात और सच का आईना दिखलाया होता,
तो आज किसी नारी का शील भंग ना होता,
ना हीं बलात्कार उत्पीड़न और अत्याचार होता,
सुखी नारी संग सुखी गृहस्थ संसार होता,
सुखी गृहस्थ संसार होता |