वर्षा ऋतु
नभ में बिछा काले मेघों का जाल
सेना दल खड़े जैसे युद्ध में तैनात
दामिनी दमकी कोई वज्र प्रहार हो
मेघ चीर बाणों सी निकली वर्षा की धार
अन्धकार से निकली मानो प्रकाश की किरण
प्रकृति का कण-कण लिए जिसकी आस
नवजीवन की करने को शुरुआत
पलकों में सपने सजे अधरो पर मुस्कान
पवन संग इठलाकर गाती मधुर गान
अरमानों के पंख सजा बनाती पहचान
नदी सागर में मिली कहीं सीपी में मोती बन निखरी
कहीं धरा के आंचल में समा नव अंकुर बन निकली
प्रकृति मनमोहक लगे हरियाली चादर सजे
कोयल मोर पपीह बोले अमृत रस घोले
स्वच्छ धवल चांदनी सा परिवेश बना
फूलों पर मुस्कान छाई सुगंधित बयार
अम्बर से धरा तक उतरे लिए अटूट विश्वास
देखो अपनी कहानी कहें वर्षा की धारा
उत्साह उमंग नव प्रेरणा भर देती
इतिहास अपना स्वयं लिखती मस्तानी
पीड़ा जो अंतस में समाई थी सदा
प्यासी धरा अम्बर से मिल कर कहती
जीवन का सार बताती यह धारा
खुशहाली से महकती आज वसुंधरा
नेहा
खैरथल अलवर (राजस्थान)