रामपुर के मंदिरों का यात्रा वृत्तांत
रामपुर के मंदिरों का यात्रा वृत्तांत
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लेखक: रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997 615 451
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1) रामपुर का प्राचीनतम मंदिर ठाकुरद्वारा मंदिर (मंदिर श्री मुनीश्वर दत्त जी महाराज)
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आज सौभाग्य से रामपुर नगर के अति प्राचीन मंदिर श्री मुनीश्वर दत्त जी महाराज (ठाकुरद्वारा मंदिर) कूॅंचा देवीदास, निकट मिस्टन गंज/ राजद्वारा के वर्तमान युवा पुजारी पंडित राकेश जी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आपके साथ श्री प्रदीप कुमार अग्रवाल (घी-तेल-आटे के थोक विक्रेता) मिस्टन गंज चौराहा तथा अन्य महानुभाव उपस्थित थे।
बातचीत से पता चला कि इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार चल रहा है । कुछ दिन पहले ही प्रदीप जी से बातचीत से यह जानकारी मिल चुकी थी कि मंदिर को सुंदर रूप दिया जा रहा है। प्रदीप जी धार्मिक कार्यों में अग्रणी रहने वाले व्यक्ति हैं तथा अन्य मंदिरों के सुंदरीकरण के कार्य में भी प्रमुख भूमिका का निर्वहन कर चुके हैं ।
राकेश जी ने बताया कि उनके पूर्वज पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस मंदिर की सेवा करते चले आ रहे हैं तथा आप सातवीं पीढ़ी के व्यक्ति हैं जो रामपुर नगर में इस ठाकुरद्वारा मंदिर (मंदिर पंडित श्री मुनीश्वर दत्त जी महाराज) के पुजारी का दायित्व निर्वहन कर रहे हैं ।
हमने पूछा कि यह मुनीश्वर दत्त जी कौन थे तथा आपका इन से क्या संबंध रहा ? इस पर पुजारी जी ने बताया कि वह मुनीश्वर दत्त जी की सातवीं पीढ़ी के व्यक्ति हैं । उनके बाबा के बाबा के नाना का नाम पंडित मुनीश्वर दत्त जी था। मुनीश्वर दत्त जी के दो पुत्र थे किंतु दुर्भाग्यवश उसके बाद वंश परंपरा में कोई नहीं है।
पुजारी जी ने बताया कि यह मंदिर लगभग तीन सौ वर्ष पुराना है । सात पीढ़ियों के अंतराल से भी यह बात, हमने अनुमान लगाया कि, सही बैठ रही है । इस तरह संभवतः रामपुर का प्राचीनतम मंदिर होने का श्रेय ठाकुरद्वारा मंदिर (मंदिर श्री मुनीश्वर दत्त जी महाराज) को जाता है ।
दिनांक 19-12-2022
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2) भमरौवा शिव मंदिर यात्रा
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2 मार्च 2022 बुधवार । भमरौवा शिव मंदिर के दर्शन करने का आज सौभाग्य मिला। अचानक दोपहर ढाई बजे कार्यक्रम बना। धर्मपत्नी श्रीमती मंजुल रानी के साथ ई-रिक्शा में बैठे और चल दिए । सिविल लाइंस पनवड़िया से होते हुए भमरौवा रोड शानदार बनी हुई थी । अनेक वर्ष बाद जाना हुआ।
रास्ते में कोई जगह सुनसान नहीं पड़ी । रहने के मकान-दुकान आदि रास्ते-भर चहल-पहल करते रहे । मंदिर के बाहर की गलियाँ वही पुराना दृश्य उपस्थित कर रही थीं। आगे वही चौड़ा मैदान ।
प्रवेश करते ही दृश्य बदला हुआ था । मंदिर का आधुनिकीकरण और विस्तार-कार्य चल रहा है । काफी कुछ बन चुका है। मूल गर्भ गृह ज्यों का त्यों है । उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया है । चारों ओर परिक्रमा बनाते हुए तदुपरांत एक ऊँचे धरातल पर वृहद परिक्रमा निर्मित की गयी है। इस तरह मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश करने के लिए श्रद्धालुओं को चार-छह सीढ़ियाँ चढ़कर इतनी ही सीढ़ियाँ उतरकर दर्शनों का लाभ मिलता है ।
व्यवस्था अच्छी है । बड़े पैमाने पर श्रद्धालुओं के आगमन की सुविधा इन सब बातों से हो गई है । प्रवेश द्वार से बाँई तरफ बड़ा-सा हॉल बना हुआ है ,जिसमें काफी संख्या में लोगों के एकत्र होने की सुविधा है।
शिवरात्रि कल हो कर चुकी है। जब हम मंदिर में दर्शन करके सीढ़ियों से उतरे, तब लौटते समय दो दंपत्ति पूजा के लिए जाते हुए मिले । कल यहाँ भारी भीड़ रही होगी ।
भीड़ के अंग बनने में एक अलग ही आनंद आता है । एक दिन की देरी होने के कारण हम उस आनंद से वंचित रह गए ,इस बार न जाने क्यों यह महसूस हुआ।
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3) पंजाबनगर_शिव_मंदिर
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रामपुर 18 फरवरी 2015
शिवरात्रि के अगले दिन प्रातः10 बजे यह विचार बना कि ग्राम पंजाबनगर स्थित शिव मन्दिर जाया जाए। हम दोनों ई.रिक्शा से 11 बजे चल दिए। सिविल लाइन्स ,ज्वालानगर से ग्राम अजीतपुर तथा पसियापुरा होते हुए हम मन्दिर में पहुँचे। रास्ता लगभग ठीक था। मगर सुधार की बेहद आवश्यकता महसूस हुई।
संयोगवश मन्दिर के गर्भगृह के मुख्य द्वार पर ही मन्दिर के संस्थापक श्री छेदालात सक्सेना जी (रिटायर्ड तहसीलदार आयु लगभग 80 वर्ष से अधिक) कुर्सी पर विराजमान दिखे। पिताजी से उनका पुराना परिचय था। बस फिर क्या था! सारा मन्दिर उन्होंने साथ घूमकर दिखाया।
1993 में मन्दिर की स्थापना छेदालाल जी की भूमि पर ही उनके प्रयत्नों से हुई थी। अब यह जनपद का प्रमुख मन्दिर है। अन्त में उन्होंने परिसर के बाहर खड़े बरगद के पेड़ के पास से मन्दिर का भव्य दीख रहा चित्रण भी कराया। स्व. रामरूप जी गुप्त, स्व. ब्रजराज शरण गुप्त वकील साहब, श्री सुरेन्द्र पाठक एडवोकेट, एवं श्री रामप्रकाश बजाज आदि के साथ बाल्यावस्था का भी उन्होंने भाव-पूर्ण स्मरण किया।
4) रठौंडा शिव मंदिर यात्रा
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रामपुर । पाँच अगस्त 2015 बुधवार | सावन का महीना चल रहा है। अगस्त/सावन का पहला बुधवार है। अकस्मात चाय पीते-पीते धर्मपत्नी श्रीमती मंजुल रानी ने प्रस्ताव रखा कि रठौंडे के शिव मंदिर चला जाए। मैंने घड़ी की तरफ देखा । शाम के चार बजकर दस मिनट थे। तुरन्त दस मिनट के भीतर हम लोग रठौंडे की तरफ चल पड़े।
रास्ता सीधा-सादा था। शहर से सिविल लाइंस ,वहाँ से मोदी होटल/स्कूल – फिर धमोरा गाँव-कस्बा / फिर लगभग सुनसान जंगल-खेत/ फिर रठौंडा गाँव-कस्बा / यहीं पर प्रवेश करते ही मन्दिर का शिखर दूर से दिख जाता है।
आसमान में बादल छाए थे। रठौंडा- धमोरा आदि क्षेत्र काले घने बादलों से घिरा था। चारों तरफ हरियाली छाई थी। रास्ते में किसी जगह शायद पानी भी पड़कर चुका ही था ।
मंदिरर पहुँचे तो परम शांति थी। मनोरम वातावरण था। जब हम मंदिर के भीतर गए, तो हमारे साथ-साथ एक सज्जन-कुछ वृद्ध आयु से- हमारे साथ आ गए। यह श्री रामस्वरूप शर्मा जी थे,जो मन्दिर के पुजारी थे। उन्होंने हमें तिलक लगाया। प्रसाद दिया।
रामस्वरूप जी के पिता स्वर्गीय श्री रतनलाल जी की मूर्ति मन्दिर-परिसर में स्थापित है। आपके पूर्वज अनेक पीढ़ियों से पुजारी का दायित्व निर्वहन कर रहे हैं। आप लोग ग्वालियर स्टेट से यहाँ आए थे। तब रठौंडा ग्वालियर स्टेट में पड़ता था – ऐसा श्री शर्मा जी ने बताया । शाम घिरने लगी थी। हम साढ़े छह तक घर आ गए ।
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5) पंडित दत्त राम का शिवालय
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पचासियों बार पंडित दत्तराम जी के शिवालय में दर्शनों के लिए जाने का अवसर मिला है। यह रामपुर का एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसका शिलान्यास नवाब कल्बे अली खान ने सोने की ईट अपने हाथों से रख कर किया था। नवाबी शासन के आरंभ होने के लगभग एक सदी के उपरांत पंडित दत्त राम का शिवालय रामपुर में जिस गली में स्थापित हुआ, उसका नाम मंदिर वाली गली है। पंडित दतराम प्रसिद्ध ज्योतिषी थे तथा उनकी भविष्यवाणियों से प्रसन्न होकर नवाब साहब उनके प्रति अत्यंत आदर रखते थे। जिसके परिणाम स्वरूप दत्तराम का शिवालय बना। नवाब कल्बे अली खान की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के कारण ही शिवालय का निर्माण संभव हो सका।
इस मंदिर में शुरुआत में तो केवल शिवालय ही था, लेकिन बाद में अन्य देवी देवताओं की भी मूर्तियां स्थापित हो गईं । हाल ही के कुछ वर्षों में इसका जीर्णोद्धार भक्त जनों के द्वारा कराया गया है। संगमरमर का फर्श है। आकर्षक साफ-सफाई है। भजन संध्या के लिए भी अब इस मंदिर हॉल का उपयोग अत्यंत सुंदरता पूर्वक हो रहा है। रामपुर की धार्मिक चेतना का केंद्र इस मंदिर को कहा जा सकता है। शहर के बीचों-बीच मिस्टन गंज के चौराहे से निकट होने के कारण हिंदुओं की घनी आबादी को इस मंदिर का लाभ पहुंचता है।
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6) तीन सौ वर्ष पुराना माई का थान
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पुराना गंज, रामपुर (उत्तर प्रदेश) स्थित मंदिर माई का थान जाने का सौभाग्य चैत्र नवरात्रि की दुर्गा अष्टमी को प्राप्त हुआ । यह मार्च 2023 की 29 वीं तिथि बुधवार का दिन था । यद्यपि पहले भी कई बार इस सिद्ध पीठ के दर्शन का शुभ अवसर मिला था, किंतु इस बार विशेषता यह रही कि मंदिर के महामंत्री श्री सुनील कुमार अग्रवाल से भी भेंट हो गई। नमस्कार का आदान-प्रदान हुआ फिर काफी समय आपके साथ बैठकर तथा मंदिर परिसर में घूमकर बारीकियों के निरीक्षण का अवसर मिल गया।
श्री सुनील कुमार अग्रवाल पिछले पैंतीस वर्षों से माई का थान मंदिर कमेटी के महामंत्री पद को सुशोभित कर रहे हैं। साढ़े तीन दशक किसी संस्था की सेवा करना अपने आप में एक सराहनीय कार्य है । जब सुनील कुमार जी ने महामंत्री पद का कार्यभार संभाला, तब उनके जीवन में युवावस्था का नव-प्रभात था । पुराने गंज के अग्रणी महानुभावों ने उन्हें इस पद के लिए उपयुक्त मानते हुए जिम्मेदारी सौंप दी और सुनील कुमार जी ने ईश्वर की इच्छा समझकर इस दायित्व को कुछ ऐसा निर्वहन करना आरंभ कर दिया कि साढ़े तीन दशक कैसे बीत गए, कुछ पता ही नहीं चला। अब सुनील कुमार जी के बाल सफेद होने लगे हैं, लेकिन उत्साह में कमी नहीं आई है ।
माई का थान मंदिर के इतिहास को हमने सोचा कि सुनील कुमार जी से बेहतर भला कौन बता सकता है। पूछ लिया कि माई का थान कितना पुराना होगा ?
यह तीन सौ साल पुराना इतिहास है -सुनील कुमार जी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ बताया। रियासत काल के वर्षों में यह एक आस्था से भरी हुई मिट्टीनुमा रचना थी। फिर नई मूर्ति की स्थापना हुई और अब तो माता के शीश पर सोने का मुकुट सुशोभित हो रहा है। सुनील कुमार जी ने बताया कि पूरे छह तोले का यह सोने का माता का मुकुट है और तब हमने महसूस किया कि सचमुच इसीलिए इस मुकुट की चमक माता के मस्तक की शोभा को द्विगुणित कर पा रही है ।
माई का थान वास्तव में एक ऐसी शब्दावली है, जो देवी के स्थान को इंगित करती है। प्रायः यह अनगढ़ स्थितियों को प्रकट करने वाली शब्दावली है। मंदिर का भव्य स्वरूप भारत भर में जहॉं भी माई के थान होते हैं, बाद में ही दिया गया ।
आज माई का थान पुराना गंज, रामपुर में देवी के गर्भगृह के दरवाजे चॉंदी के बने हुए हैं। संयोगवश जब यह चॉंदी के दरवाजे निर्मित हुए, उस समय भी चॉंदी का भाव सत्तर हजार रुपए प्रति किलोग्राम था और आज भी लगभग इतना ही है । जब सुनील कुमार जी ने यह बात बताई, तब मुझे इतिहास का वह दौर याद आया, जब बहुत थोड़े समय के लिए चॉंदी का भाव सत्तर हजार रुपए हुआ था।
मंदिर में देवी के नौ स्वरूपों को जिस सुंदर शिल्प के साथ परिक्रमा मार्ग की दीवारों पर स्थापित किया गया है, वह देखते ही बनती हैं । विशेषता यह है कि इन मूर्तियों के आगे शीशा लगा हुआ है जिसके कारण इनकी चमक कम नहीं होती । साफ-सफाई में भी सुविधा रहती है । किशनगढ़ (राजस्थान) में कारीगरों की तलाश करके सुनील कुमार जी ने कई चक्कर लगाए, मूर्तियों के निर्माण की प्रक्रिया को देखा-परखा और तब इनकी शोभा से माई का थान आज जगमगा रहा है । फर्श पर जो पत्थर बिछे हुए हैं, वह भी किशनगढ़ (राजस्थान) से मॅंगवाए गए हैं। स्वयं सुनील कुमार जी वहॉं जाकर इन पत्थरों को लेकर आए थे। पूजा का थाल, जो गर्भगृह में रखा हुआ है, वह भी शुद्ध चॉंदी से निर्मित है । सुनील कुमार जी ने इंगित करते हुए दिखाया तो मंदिर की मान्यता के अनुरूप उसकी भव्यता के लिए प्रयत्न करने वाले समस्त महानुभावों के प्रति हृदय नतमस्तक हो गया।
माई का थान मंदिर के इतिहास के क्रमबद्ध विवरण से अवगत कराने के लिए श्री सुनील कुमार अग्रवाल जी का हृदय से धन्यवाद ।
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7) बाबा लक्ष्मण दास की समाधि
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बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर लगे पत्थर पर लिखा हुआ फारसी का लेख
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पितृ पक्ष की अमावस्या तदनुसार 28 सितंबर 2019 को बाबा लक्ष्मण दास जी की समाधि पर माथा टेकने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। समाधि स्थल की परिक्रमा करते समय दीवार पर लगे हुए एक पुराने पत्थर पर निगाह फिर से ठहर गई । यद्यपि समाधि पर सैकड़ों बल्कि हजारों पत्थरों से बहुत सुंदर निर्माण कार्य परिसर में हुआ है और कहना न होगा कि समाधि के संचालक तन मन धन से इस महान आध्यात्मिक केंद्र को उसकी गरिमा के अनुरूप संचालित करने के लिए स्वयं को अर्पित किए हुए हैं। जितना निर्माण इधर आकर हुआ है , वह प्रशंसा के योग्य है और समाधि की देखभाल करने वाले सभी सज्जन इसके लिए बधाई के पात्र हैं ।
फारसी में लिखा पुराना पत्थर सहज ही ध्यान आकृष्ट करता है। देखने में लगता है कि इस पर उर्दू में कुछ लिखा होगा लेकिन वास्तव में यह फारसी में लिखा हुआ है ,जिसके पढ़ने वाले अब बहुत कम रह गए हैं । उस पर भी समस्या यह है ऐसा प्रतीत होता है कि काव्य – शैली में लिखा हुआ है, जिसके कारण पढ़ना और भी कठिन हो गया है। साधारण भाषा में अगर कुछ लिखा जाए तो पढ़ भी लिया जाता है , लेकिन जब काव्यात्मक रूप से कुछ लिखा जाता है तो सीधे-सीधे पढ़कर उनके अर्थ अक्सर प्रकट नहीं होते ।बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर लगे हुए पत्थर के बारे में भी ऐसा ही है ।
मैंने उस पत्थर की फोटो खींचकर कुछ व्हाट्सएप समूहों में डाली। मुझे तत्काल” साहित्यिक मुरादाबाद” समूह में श्री फरहत अली खान की बहुमूल्य प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। आपने पत्थर पर लिखे हुए को पढ़ने में न केवल समय लगाया बल्कि जितना संभव हो सकता था उसकी व्याख्या मुझे भेजी। आपने यह बताया कि यह फारसी में लिखे हुए कुछ अशआर हैं और आपने केवल इतना ही नहीं अपितु उसमें 1310 हिजरी जो कि इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से होती है वह लिखी हुई बताई तथा आपने उस तारीख को ईसवी सन् में बदलकर 5 मई 1893 की तारीख निकाली । अतः यह भली-भांति स्पष्ट हो गया कि आज जबकि सितंबर 2019 चल रहा है तब इस पत्थर पर अंकित अतिथि 126 वर्ष पुरानी है अर्थात यह बात स्पष्ट हो गई कि यह पत्थर 126 साल पहले लगाया गया था, तथा इस पर तदनुसार 5 मई 1893 की तिथि बैठती है । वास्तव में अंकित तिथि हिजरी में है । यह भी पता चल गया कि फारसी की काव्यात्मक पंक्तियां इस पर अंकित हैं। कभी न कभी, कोई न कोई विद्वान इस पर लिखे हुए को पढ़ने में सक्षम हो सकेंगे और ठीक ठीक जो लिखा हुआ है वह हमारे सामने आएगा और उससे इस पत्थर के लगाए जाने की क्या उपयोगिता रही होगी, वह स्पष्ट हो सकेगा। वास्तव में शिलालेख जो लगाए जाते हैं , इसीलिए लगते हैं कि सैकड़ों सालों तक चीजें इतिहास के पृष्ठों पर अंकित हो जाएं और लंबे समय के बाद जब कोई बताने वाला न रहे कि इतिहास क्या था, तब उस पत्थर को देखकर और उसको पढ़कर हम इतिहास में जाकर विचरण कर सकें ।
बाबा लक्ष्मण दास रामपुर के महान संत थे ।आपने जेठ कृष्ण पक्ष पंचमी संवत 1950 तदनुसार 5 मई 1893 को “जीवित अवस्था में समाधि” ली थी और जनश्रुतियों के अनुसार यह जीवित अवस्था में समाधि लेना एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक घटना थी। इसका श्रेय मुख्य रूप से उस परंपरा को जाता है जिसमें आप सुभान शाह मियाँ के शिष्य रहे तथा आपने आध्यात्मिक शक्तियाँ अपने गुरु श्री सुभान शाह मियाँ से प्राप्त की थीं। वास्तव में देखा जाए तो सुभान शाह मियाँ और बाबा लक्ष्मण दास यह दोनों का जो गुरु और शिष्य का संबंध है वह इस बात को भी दर्शाता है कि आध्यात्मिकता संप्रदायों की संकुचित सीमाओं से ऊपर हुआ करती है या यूं कहिए कि आध्यात्मिक विभूतियों को तथा आध्यात्मिक महापुरुषों को हम किसी सीमा में नहीं बाँध सकते। वह मनुष्य जाति की धरोहर हैं तथा समस्त मनुष्यता को उनसे प्रेरणा प्राप्त होती है।
इस लेख के साथ मैंने पत्थर पर जो लिखा हुआ है उस पर एक अन्य व्हाट्सएप ग्रुप “वैश्य समाज” पर् श्री कमल सिंहल से प्राप्त टिप्पणी को भी दिया है । वह भी यही है कि इसमें फारसी में कुछ लिखा हुआ है। यद्यपि तारीख के मामले में फरहत अली खान साहब की राय मुझे ज्यादा सटीक जँच रही है ।
बाबा लक्ष्मण दास जी की समाधि के संबंध में मैंने अनेक वर्ष पूर्व एक चालीसा “बाबा लक्ष्मण दास समाधि चालीसा” लिखा था , जो प्रमुखता से जीवित अवस्था में समाधि लेने की उनकी अति विशिष्ट घटना को रेखांकित करने के लिए था । एक लेख मैंने सुभान शाह मियाँ की मजार पर जाकर लौटने के बाद लिखा तथा इसमें सुभान शाह मियाँ और उनके शिष्य गुल मियाँ साहब की आध्यात्मिक शक्तियों को मैंने जैसा अनुभव किया , उस लेख में वैसा ही वर्णित किया गया है । इन सब बातों को अनेक वर्ष बीत गए हैं लेकिन पुनः पाठकों की सेवा में उन्हें उपस्थित करना उचित रहेगा ।
हिंदी के वरिष्ठ कवि स्वर्गीय भारत भूषण जी ने मेरे सुभान शाह मियाँ विषयक लेख को सहकारी युग, साप्ताहिक में पढ़ने के बाद एक टिप्पणी लिखी थी ,वह मैं पुनः प्रकाशित कर रहा हूँ । आशा है पाठकों को इससे लाभ होगा।
समाधि पर पत्थर 5 मई 1893 को लगा है और उस समय नवाब हामिद अली खान को सत्तासीन हुए लगभग सवा साल हुआ था। रामपुर में फारसी का प्रचलन नवाब कल्बे अली खान के शासनकाल में देखने में बहुत आया। आपका कार्यकाल 1865 से 1887 तक रहा । इस अवधि में आपने स्वयं भी एक साहित्यकार के रूप में फारसी लेखन में रुचि ली ,इसके साथ ही आपने रामपुर में हिंदी के लेखकों को फारसी भाषा में लिखी हुई पुस्तकों के हिंदी अनुवाद करने के लिए भी प्रेरित किया। इसी प्रेरणा का एक परिणाम श्री बलदेव दास चौबे ,शाहबाद, रामपुर द्वारा फारसी भाषा के प्रसिद्ध कवि शेख सादी की पुस्तक ” करीमा ” का ब्रजभाषा हिंदी में अनुवाद था जो 1873 ईसवी में नवाब कल्ब अली खान के शासनकाल में प्रकाशित किया गया ।
यह सब कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर जो फारसी का पत्थर लगा हुआ है वह इस बात को इंगित करता है कि उस समय रामपुर में फारसी प्रचलन में आने लगी थी और शिलालेखों पर उसका उपयोग चल रहा था। इसके जानकार रियासत में काफी संख्या में थे । फारसी में खूब लिखा जा रहा था तथा फारसी भाषा का हिंदी में अनुवाद हो रहा था तथा फारसी लोकभाषा तो हम नहीं कह सकते लेकिन हाँँ विद्वानों के बीच एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुकी थी।
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रामपुर रजा लाइब्रेरी में फारसी भाषा के शिलालेख के अर्थ की खोज
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बाबा लक्ष्मण दास की समाधि शहर में रामलीला मैदान के चौराहे के निकट सराय गेट पर स्थित है। उस पर फारसी का एक शिलालेख लगा हुआ है। मैं उसका अर्थ समझना चाहता था। संयोगवश कहिए या भाग्य से नावेद कैसर साहब से मेरी मुलाकात हो गई। 9 दिसंबर 2020 बुधवार को दोपहर मैंने सोचा था कि बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर फारसी भाषा में जो पत्थर लिखा हुआ है उसे पढ़वाने के लिए मैं रामपुर रजा लाइब्रेरी में जाकर किसी विद्वान से इस बारे में चर्चा करूँगा। रजा लाइब्रेरी में जाकर मैंने एक सज्जन को कार्यालय में उस पत्थर की फोटोकॉपी दिखा कर कहा ” यह फारसी का शिलालेख है ,मैं इसे पढ़वाना चाहता हूँ।”
उन सज्जन ने अपने कक्ष में ही एक दूसरे सज्जन की मेज की तरफ इशारा किया और कहा “इस कार्य के लिए आप इन से मिल लीजिए।”
मैं उन सज्जन के पास गया और उन्होंने अपनी बगल में बैठे हुए एक अन्य सज्जन से मेरे कार्य में मदद करने के लिए कहा । वह सज्जन श्वेत-श्याम दाढ़ी-मूँछें और बालों से घिरे हुए थे ,उत्साह से भरे थे ,चुस्ती और फुर्ती उनके अंदाज में झलक रही थी। सहृदयतापूर्वक मेरे कार्य में मदद करने के लिए इच्छुक हो गए । कागज हाथ में लिया और समझना शुरू किया । कागज देखते ही बोले “इस को पढ़वाने के लिए तो जैन साहब भी आ चुके हैं । यह नहीं पढ़ा जा सका था । ” जैन साहब से उनका तात्पर्य श्री रमेश कुमार जैन से था जो इतिहास के विषयों के एक उत्साही शोधार्थी हैं । फिर पूछने लगे “आपका नाम क्या है ? कहाँ से आए हैं ?”
मैंने तब तक उन्हें पहचान लिया था । मैंने पूछा “आप नावेद कैसर साहब हैं ?” वह बोले “हां ।”
मैंने कहा “मेरा नाम रवि प्रकाश है । ” बस इतना सुनते ही नावेद कैसर साहब आत्मीयता के भाव से भर उठे । “आप ही हैं जिनके कमेंट बहुत ज्यादा आते थे । मैंने कहा ” हाँ, और आप भी क्या खूब लिखते थे ! हम उसे पढ़ते थे और कमेंट करते थे।” यह चर्चा रामपुर रजा लाइब्रेरी फेसबुक पेज की हो रही थी जो लॉकडाउन के समय में खूब चली । बस फिर क्या था ,नावेद कैसर साहब ने अपनी कुर्सी हमारे पास डाली और कागज गंभीरता पूर्वक देखना शुरू किया।
शिलालेख क्योंकि बाबा लक्ष्मण दास की समाधि पर काफी पुराना है और फारसी भाषा में लिखा हुआ है अतः इसकी प्रमाणिकता बहुत ज्यादा बढ़ जाती है । मैं इसी उद्देश्य से इस पत्थर की लिखावट को पढ़ने के लिए प्रयासरत था । कई वर्ष पूर्व मैंने जनश्रुतियों के आधार पर या कहिए कि सुनी-सुनाई बातों के आधार पर बाबा लक्ष्मण दास चालीसा की रचना की थी। इसमें मैंने उन्हें श्री सुभान शाह मियाँ का शिष्य बताते हुए उनके देहावसान के उपरांत बहुत अद्भुत और अनोखी रीति से उनके अंतिम संस्कार के समय का वर्णन किया था। मैं चाहता था कि कुछ प्रामाणिक तथ्य भी इसके साथ जुड़ जाएँ।
नावेद कैसर साहब ने बहुत ध्यान पूर्वक शिलालेख की फोटोस्टेट कॉपी को पढ़ने का प्रयत्न किया । एक स्थान पर नावेद कैसर साहब पढ़ते-पढ़ते अटक गए और उन्होंने कहा कि कविता का तुकांत नहीं मिल रहा है। ऐसा जान पड़ता है कि कोई अक्षर गायब हो रहा है। मैंने उन्हें अपने मोबाइल में पत्थर का खींचा गया चित्र दिखलाया और वह खुशी से उछल पड़े । फोटो में एक स्थान पर उंगली रखते हुए वह बोले ” यह हल्का सा निशान इस चित्र में साफ दिख रहा है, जो फोटो स्टेट में बिल्कुल ही गायब हो चुका था।”
चीजों को समझने के लिए नावेद कैसर साहब को रजा लाइब्रेरी के ही एक अन्य विद्वान श्री इरशाद साहब से परामर्श की आवश्यकता जान पड़ी । मुझे लेकर वह उनके पास गए और अब दो विद्वान फारसी के उस शिलालेख को पढ़ने का प्रयास कर रहे थे । बीच में मैं निरंतर उनकी बातें सुन रहा था । मैंने कहा “जो शब्द भी जितने भी जैसे भी समझ में आ रहे हैं, आप बताते जाइए। पूरा शिलालेख भले ही न पढ़ा जाए लेकिन उसका जितना भी अभिप्राय हमारी समझ में आ जाएगा ,वह पर्याप्त होगा।”
नावेद कैसर साहब की मेहनत रंग लाई। इरशाद साहब के साथ उनकी अनेक शब्दों को पढ़ते समय एक प्रकार से भिड़ंत भी हुई। इरशाद साहब कुछ शब्दों के अर्थ दूसरे प्रकार से कर रहे थे लेकिन नावेद साहब ने उनसे कहा कि यह अर्थ नहीं हो सकता। मैं उन दोनों की बातें सुन रहा था किंतु हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं था । इरशाद साहब भी फारसी के विद्वान थे, अतः नावेद कैसर साहब शब्दों के जो अर्थ लगा रहे थे उन पर एक प्रकार से इरशाद साहब की सहमति के बाद पूर्णता की मोहर लगी । बाद में स्वयं नावेद कैसर साहब ने इस बात को स्वीकार किया कि दो लोगों के बैठ कर इस शिलालेख को पढ़ने की कोशिश किए बगैर कार्य आगे नहीं बढ़ सकता था। वास्तव में एक-एक शब्द को पढ़ने में बल्कि कहना चाहिए कि एक-एक अक्षर को तलाश करने में दोनों को काफी मेहनत करनी पड़ी।
इस बात पर सहमति बनी कि एक प्रकार का काव्य इन पंक्तियों में इस शिलालेख में लिखा गया है :-
वरहलते मुर्शद -ए – बाशाने शाही
पए तारीखे करदम बयाने गाही
निदा आमद ज़ेहातिफ ईं बगोशम
गरीके बहरे इन-आम-ए इलाही
उपरोक्त पंक्तियाँ फारसी में लिखित हैंं लेकिन तुकांत अच्छी तरह मिल रहा है , यह बात तो समझ में आ ही रही है । इस तरह तुकांत से तुकांत मिलाते हुए शब्दों को खोजा गया और यह अपने आप में एक बड़ा कठिन कार्य था । नावेद कैसर साहब मुस्कुराते हुए बीच-बीच में मुझसे भी पूछते रहते थे बल्कि कहिए कि बताते रहते थे कि देखिए तुकांत मिल रहा है ! कविता में यही तो खास बात होती है । मैं उनकी सूझबूझ से प्रसन्न था।
शिलालेख में लछमन शब्द लिखा हुआ ठीक पढ़ने में आ रहा था। लछमन बन कोहसार यह शब्द पढ़ने में आ रहा था । इसी से मिलता जुलता शब्द बई कोहसार अथवा बाहमी कोहसार भी पढ़ने में आ रहा था ।
एक शब्द था रहलते मुर्शद। यह भी इरशाद साहब ने पढ़कर नावेद कैसर साहब की पुष्टि की । रहलत का अर्थ मृत्यु होता है । एक वाक्य का अर्थ यह हुआ कि मृत्यु शान से हुई ।
कोहसार शब्द का अर्थ पहाड़ होता है। इरशाद साहब ने मुझसे पूछा ” लिखे हुए में कोहसार शब्द आ रहा है । क्या बाबा साहब की समाधि किसी पहाड़ी पर है ? ”
मैंने कहा “पहाड़ी तो नहीं है ।”
वह बोले “अर्थ में तो यही लिखा हुआ है ।”
फिर उन्होंने पूछा “किस प्रकार की संरचना वहाँ है ?”
अब मैं समझ गया कि शिलालेख का लेखक क्या कहना चाहता होगा । वास्तव में संतों की समाधियाँ जमीन से ऊपर उठ कर ऊँचाई में गुंबदनुमा बनती हैं। बाबा लक्ष्मण दास की समाधि भी इसी प्रकार से गोलाई लिए हुए एक पहाड़ी की तरह दिखाई पड़ती है और इस कारण उसके लिए कोहसार शब्द का प्रयोग किया गया।
1950 में लछमन इस कोहसार में आए ,एक वाक्य यह भी बताता था ।1950 का अभिप्राय विक्रमी संवत 1950 से हो सकता है, मैंने सुझाया और यह बात मान ली गई । इस प्रकार 1950 से 2077 विक्रमी संवत तक 127 वर्ष बीत गए ।
यह तो तय था कि रहलत शान से हुई। इस बात से बाबा साहब की समाधि ग्रहण करने के समय अद्भुत और अनोखी बातें हुईं, यह भी स्पष्ट हो जाता है ।
इनकी रहलत की तारीख के लिए मैंने यह बयान किया यह बात भी पढ़ने में आ रही थी। मेरे कानों में आवाज आई कि यह इनाम -ए- इलाही अर्थात ईश्वर के इनाम के समुंदर में विलीन हैं। इस प्रकार का अर्थ भी शिलालेख से स्पष्ट हुआ।
दोनों विद्वानों का कथन था कि यह शिलालेख बाबा लक्ष्मण दास के किसी शिष्य द्वारा लगवाया गया है । इस पर लिखा हुआ है :- तारीख के लिए मैंने यह बयान किया अर्थात उनकी मृत्यु किस तिथि को हुई इसको लिखने के लिए यह पत्थर लगाया गया है।
पत्थर पर कृष्ण शब्द स्पष्ट रूप से लिखा हुआ मिला । इसके आगे अस्पष्ट था । यद्यपि जब मैंने सुझाया कि पक्ष हो सकता है क्योंकि कृष्ण पक्ष अपने आप में एक संपूर्ण शब्द है, तब बात स्पष्ट नहीं हो पाई ।
इरशाद साहब ने एक स्थान पर सुभान शब्द लिखा महसूस किया । दरअसल मैंने पूछा था कि क्या इस शिलालेख पर सुभान शाह मियाँ का कोई जिक्र आता है कि यह सुभान शाह मियाँ के शिष्य बाबा लक्ष्मण दास की समाधि है ? इरशाद साहब एक शब्द को सुभान पढ़ना चाहते थे लेकिन नावेद कैसर साहब का कहना था ” जब तक चीज अकाट्य रूप से पढ़ने में नहीं आ जाती, हम कोई बात मुँह से कैसे निकाल सकते हैं ?” दरअसल गंभीर शोध कार्य में एक-एक कदम बहुत तर्क-वितर्क तथा फूँक-फूँककर आगे बढ़ाना होता है।
1310 हिजरी 18 शव्वाल स्पष्ट रूप से पढ़ने में आया । यह बात मुझे पहले भी मुरादाबाद निवासी श्री फरहत अली खाँ ने पढ़ कर बता दी थी । उन्होंने इसको 5 मई 1893 में परिवर्तित करके भी तिथि निकाली थी । लेकिन फरहत अली खाँ का कहना था कि उन्हें केवल उर्दू आती है तथा फारसी का ज्ञान नहीं है ।
नावेद कैसर साहब से मुलाकात में फारसी के एक नहीं बल्कि दो विद्वान रामपुर रजा लाइब्रेरी में उपलब्ध हो गए और काफी हद तक फारसी के शिलालेख की गुत्थी सुलझ गई ।
एक स्थान पर फारसी के गरीके शब्द से वर्ष गिने गए । प्रारंभ में इरशाद साहब ने शब्दों को पढ़ने में कुछ दूसरा विवरण प्रस्तुत कर दिया जिससे 1719 का योग बैठ रहा था। किंतु जब इस काव्य को दोबारा देखा गया और नावेद कैसर साहब ने भी जब कुछ आपसी परामर्श के द्वारा निष्कर्ष निकालने की कोशिश की ,तब 1310 का योग बैठा। योग 1000 + 200 + 10 + 100 अर्थात 1310 था ।
कहना न होगा कि इतनी माथापच्ची भला कौन कर सकता है । यह तो केवल नावेद कैसर साहब की जुझारू शोधवृत्ति है, चीजों को गहराई में जाकर समझने और समझाने का उनका उत्साह है बल्कि कहिए कि मेरे साथ उनकी गहरी आत्मीयता ही है जिसके कारण उन्होंने बहुत प्रेम के साथ तथा अपनी गहरी शोधप्रियता के साथ न केवल स्वयं बल्कि अपने सहयोगी श्री इरशाद साहब का भी काफी समय लेते हुए शिलालेख को पढ़ने में मेहनत की और सार्थक परिणाम जिसके कारण निकल सके।
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8) बगिया जोखीराम में श्री राम सत्संग भवन का निर्माण : श्री राजेंद्र जायसवाल जी का अनूठा कार्य
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2 नवंबर 2022 बुधवार। दोपहर 2:00 बजे से 3:00 बजे तक बगिया जोखीराम (निकट तिलक कॉलोनी, जिला अस्पताल, रामपुर) में जब रहा, तो इससे पहले कि दरवाजे से निकल कर बाहर आता, श्री राजेंद्र जायसवाल जी ने मुझे रोका और एक स्थान पर ले जाकर खड़ा कर दिया । कहने लगे -“आप रुकिए ! मैं अभी आता हूॅं।”
उस भवन के मुख्य द्वार पर श्री राजेंद्र जायसवाल जी का नाम अंकित देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई । पत्थर पर लिखा हुआ था –
माता दुर्गा भवानी के चरणों में जीवन के इक्यावन वर्ष
संग साथ
राजेश्वरी जायसवाल-राजेंद्र जायसवाल
द्वारा समर्पित नवनिर्मित कक्ष दिनांक 12 मई 2018
भवन के ऊपर सर्वप्रथम 🕉️ का पवित्र चिन्ह अंकित था । तत्पश्चात केसरिया रंग में श्री राम सत्संग भवन बड़े-बड़े मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था।
मुश्किल से एक-दो मिनट में ही जायसवाल साहब लौट आए। उनका घर पास में ही था । हाथ में चाभी थी । सत्संग भवन के दरवाजे का ताला खोला तथा मुझे स्नेह पूर्वक अंदर ले गए। भीतर मंदिर के समान पवित्र वातावरण देखकर मैं मुग्ध हो गया । यह सचमुच सत्संग भवन था ।
भवन की साफ-सफाई तथा उच्च कोटि का निर्माण देखते ही बनता था । मंच की दिशा में दीवार पर राधा-कृष्ण, गणेश जी, शंकर-पार्वती, राम दरबार तथा हनुमान जी के बड़े और आकर्षक चित्र सुसज्जित थे। एक कोने में नई अलमारी रखी थी । उसके आगे दो माइक रखे हुए थे । साउंड-सिस्टम भी दिखाई पड़ रहा था ।
जायसवाल साहब से जब मैंने पूछा कि यह तो बहुत सुंदर कार्य आपके द्वारा हो गया है, तब उन्होंने वास्तव में बहुत ही विनम्रता के साथ कहा कि यह सब आपके पिताजी के ही आशीर्वाद का फल है । उनकी वाणी में जो अपनत्व और स्नेह था, मैं उसका वर्णन नहीं कर सकता।
1970 से 1977 तक मैंने सुंदर लाल इंटर कॉलेज, रामपुर में कक्षा 6 से कक्षा 12 तक की पढ़ाई की थी। जायसवाल साहब उसी दौर से विद्यालय में गणित और भौतिक-विज्ञान के विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते थे । आपका कार्यकाल निर्विवाद रूप से संपन्न हुआ । जैसा आपका सात्विक आचार-विचार लंबे समय तक रहा, उसी के अनुरूप एक सात्विक रचना आपके द्वारा प्रभु ने सृजित कर दी । यह आपके निर्मल विचारों को तो प्रकट करती ही है, अपनी श्रेष्ठ भावनाओं के साथ अच्छे समाज का निर्माण भी इसके माध्यम से हो सकेगा।
जीवन के साथ-साथ धन भी नश्वर और नाशवान कहा जाता है । इसका सर्वोत्तम उपयोग यही है कि इसे किसी सत्कार्य में व्यय कर दिया जाए। जायसवाल साहब ने बताया कि जब उनके विवाह के पचास वर्ष पूरे हुए, तब दोनों पति-पत्नी ने विचार किया कि एक ऐसा आयोजन किया जाए जो सदैव के लिए स्थाई हो सके । विचार को आपने क्रियान्वित किया और आपके विवाह के स्वर्ण जयंती की स्वर्णिम रश्मियॉं “श्री राम सत्संग भवन” के रूप में संपूर्ण समाज को आलोकित करने की दिशा में आगे बढ़ गईं। प्रत्येक बुधवार को आपके द्वारा श्री राम सत्संग भवन, बगिया जोखीराम में सत्संग का आयोजन होता है। बैठने की सुंदर व्यवस्था है। आपके पवित्र कार्य को ढेरों बधाई और शुभकामनाऍं।
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9) राधा कृष्ण मंदिर (मुन्नीलाल धर्मशाला)
श्री मुन्नी लाल जी अपनी बनवाई हुई धर्मशाला के कारण रामपुर भर में प्रसिद्ध रहे, बल्कि कहना चाहिए कि अमर हो गए । मुन्नी लाल जी की धर्मशाला मिस्टन गंज के निकट चाह इन्छा राम में स्थित है । इसी के अन्तर्गत एक राधाकृष्ण मंदिर भी है , जिसके संबंध में उनके धेवते अर्थात पुत्री के पुत्र श्री नरेंद्र किशोर ‘इब्ने शौक’ जी ने अपनी पुस्तक “चंद गजलियात” में लिखा है कि यहां “भगवान राधावल्लभ जी यवन शासित काल में श्री वृंदावन वासी हित हरिवंश गौरव गोस्वामी जी की विधि साधना से आसीन हुए । संभवतः उस काल में यह रामपुर नगर का दूसरा सार्वजनिक मंदिर था । प्रथम मंदिर शिवालय था , जो मंदिरवाली गली में स्थित है। इसका शिलान्यास एवं निर्माण नवाब कल्बे अली खान ने पंडित दत्तराम जी के अनुरोध से कराया था ।”
मुन्नीलाल धर्मशाला/ राधा कृष्ण मंदिर के द्वार पर एक पत्थर लगा हुआ है जिस पर मिती माघ बदी एक संवत 1990 अंकित है। (इतिहासकार रमेश कुमार जैन से प्राप्त जानकारी के अनुसार इसका अर्थ एक जनवरी 1934 सोमवार हुआ।)
राधा कृष्ण मंदिर में एक बड़ा हॉल है, जहां भजन, कीर्तन, कथाएं तथा सामाजिक कार्यक्रम होते रहते हैं। नगर के बीचों बीच होने के कारण यह अत्यंत जन उपयोगी संस्था है।
लाला मुन्नीलाल जी के पुत्र कोई नहीं था। दो पुत्रियॉं थीं ,जिनका विवाह प्रतिष्ठित परिवारों में हुआ था। कतिपय विवादों के कारण जिला अदालत के फैसले से तीन सदस्यों के एक ट्रस्ट ने जनवरी 1962 से कार्य करना आरंभ किया। इसके सदस्य स्वतंत्रता सेनानी द्वय श्री सतीश चंद्र गुप्त एडवोकेट तथा श्री देवी दयाल गर्ग थे। तीसरे सदस्य एवं अध्यक्ष का दायित्व मेरे पिताजी श्री राम प्रकाश सर्राफ को सौंपा गया तथा उन्होंने दिसंबर 2006 में अपनी मृत्यु तक मुन्नीलाल धर्मशाला एवं राधा कृष्ण मंदिर के रखरखाव में यथाशक्ति रुचि ली। मंदिर हॉल का निर्माण भी इसी अवधि में हुआ।
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10) रामनाथ सत्संग भवन (अग्रवाल धर्मशाला)
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1970 के आसपास नगर के प्रसिद्ध व्यवसायी तथा धार्मिक प्रवृत्ति के धनी रामनाथ जी ने अग्रवाल धर्मशाला के भीतर रामनाथ सत्संग भवन का निर्माण कराया था। यह सत्संग भवन ईंट-सीमेंट की एक संरचना होकर ही शायद रह जाता, अगर इसे बृजवासी लाल भाई साहब के समर्पित आध्यात्मिक हृदय का स्पर्श न मिला होता।
बृजवासी लाल भाई साहब ने रामनाथ सत्संग भवन में दैनिक सत्संग की परिपाटी आरंभ की। आपका भक्ति भाव अनूठा था। बाहर के संतों को भी आप बुलाते थे। उनकी कथाओं का आयोजन करते थे। ठहराने के इंतजाम से लेकर कथा में व्यक्तिगत रुचि लेना आपकी विशेषता थी। यह सब कार्य श्री राम सत्संग मंडल के माध्यम से भाई साहब के जीवन काल में चला। तत्पश्चात रविंद्र भूषण गर्ग जी जो अवकाश प्राप्त प्रधानाचार्य थे, उनकी देखरेख में सत्संग चलता रहा। उनके देहावसान के बाद श्री विष्णु शरण अग्रवाल सर्राफ के समर्पित नेतृत्व में सत्संग का कार्य जोर-जोर से प्रतिदिन चल रहा है। विष्णु शरण अग्रवाल जी ने अनुशासन का पालन करने की परंपरा कठोरता पूर्वक स्थापित की हुई है। प्रातः काल ठीक 9:00 बजे सत्संग आरंभ होता है और ठीक 10:00 बजे सत्संग की समाप्ति होती है। वक्ता कोई भी हो, कितनी भी दूर से आया हुआ हो, उसे समय का पालन करना होता है।
मेरी कई पुस्तकों का लोकार्पण श्री राम सत्संग मंडल के तत्वावधान में रामनाथ सत्संग भवन में ही हुआ था। आध्यात्मिक पुस्तकों को वहां के दिव्य वातावरण और भक्तजनों की उपस्थिति के कारण विशेष प्रोत्साहन मिल सका। इसके लिए मैं संस्था संचालकों विशेष रूप से श्री विष्णु शरण अग्रवाल सर्राफ का आभारी हूॅं।
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11) राधा कृष्ण सत्संग-भवन, फर्राशखाना
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कोरोना के बाद से शायद ही कभी नवनीत जी के दर्शन हुए, अन्यथा वृद्धावस्था के बाद भी आप आनंदपूर्वक घूमते थे। आप की सक्रियता के क्या कहने ! फर्राशखाना में “राधा-कृष्ण सत्संग भवन” की स्थापना का श्रेय आपको ही जाता है । उस समय पंडित रवि देव रामायणी जी को साथ लेकर आपने सत्संग भवन की जड़ें जमाने के लिए जो परिश्रम किया, उसे याद करना अत्यंत प्रेरणादायक जान पड़ता है ।
उन्हीं दिनों मैंने भी अपनी एक पुस्तक का पाठ फर्राशखाना, राधा कृष्ण सत्संग भवन में आप से अनुमति लेकर कराया था । इस कार्य में आपको अत्यंत प्रसन्नता हुई थी ।
आप पूर्ण मनोयोग से हिंदू धर्म के आधारभूत सिद्धांतों को जन-जन के जीवन में पहुंचाना चाहते थे । सनातन धर्म की आधारशिला रामायण और गीता इन दो ग्रंथों पर टिकी हुई है । आप इन दोनों को ही लेकर आगे बढ़े और देखते ही देखते राधा कृष्ण सत्संग भवन, फर्राशखाना हिंदू धार्मिक गतिविधियों का एक अच्छा केंद्र बन गया ।
आप की दुकान मिस्टन गंज में भगवती बाजार में है । दुकान पर आप नियमित रूप से बैठते थे, चलाते थे । लेकिन उसके समानांतर अध्यात्म की धारा आपके जीवन में बराबर प्रवाहित होती रही । अनेक संतों को आपने सत्संग भवन फर्राशखाना में आमंत्रित किया । जब गीता-मर्मज्ञ पधारे थे, तो पूरा हाल खचाखच भर जाता था । संतो के ठहरने, भोजन, जलपान आदि की व्यवस्था आप स्वयं देखते थे।
आपके न रहने से एक प्राणवान व्यक्तित्व हमारे बीच नहीं रहा । आप की पावन स्मृति को शत शत प्रणाम ।
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12)*अति प्राचीन कोसी मंदिर, रामपुर*
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लेखक: रवि प्रकाश पुत्र श्री राम प्रकाश सर्राफ, बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451
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कोसी मंदिर की प्राचीनता का आकलन कठिन है। बुजुर्ग बताते हैं कि एक जमाना था, जब कोसी नदी कोसी मंदिर के पास होकर बहती थी। मंदिर और कोसी नदी के मध्य घाट बने हुए थे। सीढ़ियॉं उतरकर नदी में श्रद्धालुजन स्नान करते थे। अगर खोजबीन की जाए तो जमीन के भीतर घाट और सीढ़ियों के अवशेष खोजे जा सकते हैं।
मंदिर नवाबों से पहले का है। इसके प्रयोग में बहुत छोटी ईंट जिसे ‘कनकइया ईंट’ कहते हैं, का प्रयोग किया गया है। मंदिर परिसर की दीवारें चौड़ी है। ऊंचाई कम है। ऐसा जान पड़ता है कि मंदिर की भव्यता प्रवेश से पहले ही श्रद्धालुओं को नजर आने लगे, ऐसी संरचना का प्रयोग किया गया है। मंदिर परिसर में जो भवन बनाए गए हैं उनमें एक दो स्थानों पर प्राचीनता स्पष्ट दिखाई पड़ रही है।
एक प्राचीन भवन तो कर्मचारियों के रहने के कार्य आता है। पहले इसमें भंडारे भी होते थे लेकिन अब भंडारे के लिए एक अलग स्थान निर्मित कर दिया गया है।
कोसी मंदिर का इतिहास लाला हरध्यान जी के समय से ही ज्ञात हो सका। लगभग 1875 के आसपास आपके द्वारा मंदिर का सुंदरीकरण और संचालन हुआ। आप माथुर वैश्य थे। भगवान शंकर के परम भक्त थे। जनसाधारण में आज भी कोसी मंदिर को ‘ कोसी मंदिर लाला हरध्यान जी माथुर वैश्य’ का मंदिर कहा जाता है। मंदिर में भगवान शंकर का शिवालय केंद्रीय आस्था की संरचना है । शिवलिंग प्राचीन रूप में ही उपस्थित है। शिवलिंग का रंग भूरा है तथा उसके चारों ओर जल चढ़ाने की जो व्यवस्था है, वह सफेद पत्थर की है। शिवलिंग के निकट ही गर्भगृह में नंदी जी विराजमान हैं । आपका स्वरूप भी संगमरमर का है। दीवार पर एक ‘आले’ में माता पार्वती की संगमरमर की प्रतिमा है। यह भी अत्यंत प्राचीन निर्मिति है। तीन ओर से मंदिर के दरवाजे खुले रहते हैं। चौथी ओर हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित है।
मंदिर लगभग पॉंच फीट ऊंचे चबूतरे पर स्थित है। गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा करने का अच्छा-खासा खुला स्थान है। त्योहार आदि के अवसर पर जब भीड़ हो जाती है, तब यह बड़ा परिक्रमा-स्थल भी छोटा लगने लगता है। प्रतिदिन बड़ी संख्या में भक्तजन शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं। पुष्प अर्पित करते हैं। मंदिर के सबसे बाहरी द्वार पर ही फूल बेचने की व्यवस्था है। टोकरी लेकर पुष्प-विक्रेता बैठे रहते हैं। एक दो गेरुआ वस्त्रधारी संत भी वहीं आसपास बैठे हुए दिख जाएंगे। साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है। पानी ठहरने से कीचड़ न हो तथा फर्श हर समय चमचमाता रहे, उसके लिए सेवक प्रति-क्षण कार्यरत रहते हैं। मंदिर संचालन व्यवस्था सुंदर है। प्राचीन शिवालय के ठीक सामने देवी माता का मंदिर है। यह स्वतंत्रता के पश्चात बना है। संपूर्ण कोसी मंदिर परिसर में जूते-चप्पल पहन कर आना माना है। भ्रमण करने के लिए रास्ते सीमेंट के बने हुए हैं। साफ हैं, अतः पैदल चलने में सुविधा रहती है। परिसर में चारों तरफ घने वृक्ष लगे हुए हैं कुछ वृक्ष तो पता नहीं कितने सैंकड़ों साल पुराने हैं।
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मनोकामना वृक्ष
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एक वृक्ष ‘मनोकामना वृक्ष’ कहलाता है। इस पर भक्तजन कलावा बॉंध कर चले जाते हैं और मान्यता है कि उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती है। हमने मनोकामना वृक्ष पर बंधे हुए बहुत से कलावे देखे। यह भक्तों की वृक्षों के प्रति आस्था को दर्शा रही प्रवृत्ति है।
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प्राचीन कुऑं
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मनोकामना वृक्ष के पास ही प्राचीन कुऑं है, जिसे लोहे के जाल से ढक दिया गया है। इस पर टीन की चादर की छतरी बनी हुई आज भी देखी जा सकती है। छतरी वाले कुएं के पास ही टीन शेड डालकर भक्तों के विश्राम आदि के लिए स्थान बनाया हुआ है।
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धार्मिक-शैक्षिक गतिविधियों से संपन्न कोसी मंदिर मार्ग
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कोसी मंदिर शहर की घनी आबादी से हटकर है। कोसी मंदिर मार्ग पर रामलीला मैदान, महर्षि वाल्मीकि मंदिर, सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज और गौशाला है। कोसी मंदिर के निकट की पुलिस चौकी ‘कोसी मंदिर पुलिस चौकी’ कहलाती है।
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कोसी मंदिर अखाड़ा
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कोसी मंदिर के परिसर में एक अखाड़ा भी है। इसका नाम ‘कोसी मंदिर अखाड़ा’ है। कोसी मंदिर अखाड़े का इतिहास भी लाला हरध्यान जी के समय से है अर्थात 1875 ईसवी से इसका शुभारंभ माना जाता है। कोसी मंदिर अखाड़े में हमें दिनेश कुमार (दुर्गा मिष्ठान्न भंडार मिस्टन गंज वाले) तथा धर्मपाल रस्तोगी ज्वेलर्स (शादाब मार्केट निकट मिस्टन गंज) अखाड़े के चबूतरे पर बैठे हुए दिखे। चार-पॉंच पहलवान कसरत कर रहे थे। लंगोट पहने हुए थे। अखाड़े के उपकरण अखाड़े के चबूतरे पर एक तरफ रखे हुए थे।
दिनेश कुमार और धर्मपाल रस्तोगी से पता चला कि करीब चालीस साल से आप दोनों ही आ रहे हैं। उससे पहले किशन लाल रस्तोगी अखाड़े के उस्ताद हुआ करते थे। लल्ला उस्ताद का भी आपने स्मरण किया। अखाड़ा एक सौ पिचहतर वर्ष से चल रहा है। लोग आते हैं-जाते हैं, लेकिन अखाड़ा नहीं रुका ।
शास्त्र और शस्त्र दोनों का केंद्र सदैव से मंदिर रहे हैं। इसी परंपरा के अनुसार लाला हरध्यान जी ने कोसी मंदिर में अखाड़े की नींव डाली थी। अखाड़ा परिसर में आढ़ू-जामुन आदि के वृक्ष अखाड़े में कसरत करने वाले नवयुवकों के द्वारा हाल के वर्षों में लगाए गए हैं। एक प्रकार से अखाड़ा युवाओं को कसरती सेहत भी प्रदान कर रहा है और इतना सक्षम भी बना रहा है कि किसी बहू-बेटी की ओर कोसी मंदिर परिसर में कोई बुरी नजर से देखने का दुस्साहस नहीं कर सकता।
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कोसी मंदिर पर मेला
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कोसी मंदिर पर विभिन्न त्योहारों पर मेले लगते हैं। सबसे बड़ा मेला कार्तिक पूर्णिमा को गंगा स्नान का लगता है। पुराने जमाने में लोग मंदिर से लगे हुए घाट पर गंगा-स्नान कर लेते थे, लेकिन अब कई किलोमीटर आगे कोसी बह रही है। कुछ लोग पैदल अथवा वाहनों से कोसी नदी तक जाते हैं। काफी संख्या में लोग कोसी मंदिर में ही पूजा करके गंगा स्नान के पर्व को मना लेते हैं।
सराय गेट से कोसी मंदिर तक भारी मेला गंगा स्नान के दिन लगता है। दोनों तरफ मिट्टी के बर्तन बेचने वाले अपना सामान फैला कर बैठ जाते हैं। घड़े, सुराही, गमले, कुल्हड़ आदि भारी संख्या में बेचे और खरीदे जाते हैं। लकड़ी के बने सामान भी खूब बिकते हैं। लकड़ी की पटली, रई, चकला, बेलन आदि ऐसे अवसरों पर ही मेले में दिख जाते हैं। चाट-पकौड़ी आदि भी मिलती है।
गंगा स्नान के अवसर पर कोसी मंदिर मार्ग में विभिन्न संस्थाएं खिचड़ी का आयोजन भी करती हैं। इन सब से कोसी मंदिर की दिव्यता द्विगुणित हो जाती है।
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संदर्भ: कोसी मंदिर में दिनेश कुमार (दुर्गा मिष्ठान्न वाले) तथा धर्मपाल रस्तोगी (ज्वेलर्स, शादाब मार्केट वालों) से दिनांक 27 मई 2024 सोमवार को हुई वार्ता एवं मंदिर परिसर में भ्रमण के आधार पर।
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13)*पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, रामपुर*
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लेखक: रवि प्रकाश पुत्र श्री राम प्रकाश सर्राफ, बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451
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रामपुर में दो जैन मंदिर हैं। एक फूटा महल, रामपुर शहर में है। दूसरा सिविल लाइंस में है । सिविल लाइंस वाला आदिनाथ दिगंबर जैन मंदिर कहलाता है।
पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर अत्यंत प्राचीन है। सर्वसाधारण का मानना है कि यह मंदिर रामपुर में नवाबी शासन 1774 ईसवी से पहले का है।
मंदिर के भीतर लिखे हुए इतिहास-विवरण से पता चलता है कि मंदिर के विस्तार हेतु भूमि 1851 में दान स्वरूप श्री मूल चन्द्र बम्ब व श्री सीताराम बम्व द्वारा प्राप्त हुई है। इससे यह तो सिद्ध हो ही रहा है कि 1851 से पहले भी इस स्थान पर पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर का किसी न किसी रूप में अस्तित्व विद्यमान था और मंदिर संचालित हो रहा था।
लिखित विवरण से ही यह भी पता चलता है कि वर्ष 1908 से 1927 के मध्य मन्दिर की वेदी ‘ आले ‘ के रूप में प्रयोग की गई। संभवत रामपुर रियासत में सार्वजनिक रूप से पूजा के स्थान पर दब-ढक के श्रद्धापूर्वक पूजागृह संचालित करने की कार्य पद्धति इसका कारण रही होगी।
लिखित इतिहास से ही यह भी पता चलता है कि 1927 में मन्दिर के गर्भगृह में वेदी प्रतिष्ठा, दीवारों पर जापानी टाइल्स, फर्श पर पत्थर आदि का सौन्दर्याकरण कार्य श्रीमती कुन्दन बाई जैन धर्मपत्नी श्री अजुध्या प्रसाद जैन बम्व के द्वारा करवाया गया। मंदिर के गर्भगृह में फर्श पर निर्माणकर्ता के नाम का पत्थर लगा हुआ इस लेखक ने देखा और पढ़ा है। इस पत्थर पर संवत 1984 अंकित है। आज जबकि विक्रमी संवत 2081 चल रहा है तो इस पत्थर के द्वारा भी लगभग सौ साल पुराना मंदिर के फर्श पड़ने का इतिहास सिद्ध हो रहा है। फर्श के शिलालेख में इस प्रकार अंकित है:-
श्रीमती कुंदन बाई धर्म पत्नी ला. अजुध्या परशाद जैन बंब रामपुर स्टेट कार्तिक शुक्ल 10 संवत 1984
मंदिर के भीतर लिखित इतिहास के अनुसार मंदिर के शिखर का निर्माण सन् 1948-50 के मध्य हुआ। लगभग यही वह समय था जब मंदिर के विस्तार और उसके विविध कार्यक्रमों के धूमधाम से आयोजन की शुरुआत हुई।
जैन बाग का भी मंदिर से गहरा संबंध रहा। आजादी मिलने के अगले साल ही जैन बाग खरीदा गया और हर साल रथयात्रा मंदिर से शुरू होकर जैन बाग जाती है। रथयात्रा के लिए सुंदर रथ का निर्माण 1952 में गेंदन लाल जैन व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कपूरी देई जैन द्वारा करवाया गया।
वर्ष 1992 में रामपुर में स्थित हरियाल गॉंव में खुदाई के दौरान लाल रंग के पत्थर की भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा मिली। पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर में वह प्रतिमा स्थापित होने के बाद तब से प्रतिदिन पूजी जा रही है। यह जैन आस्था के केंद्र के रूप में प्राचीन रामपुर के इतिहास की ओर गंभीर रूप से इंगित कर रहा है।
धर्मशाला मकान के रूप में 25 मई 1889 में मूलचन्द्र पुत्र सीताराम द्वारा इस आशय से दान स्वरूप दी गई थी कि इसकी आमदनी मन्दिर पर खर्च की जाये। धर्मशाला का निर्माण 1925-30 के आसपास हुआ। इसका नव-निर्माण सन् 2006 में किया गया। धर्मशाला के निर्माण से मंदिर की गतिविधियों को चौगुना विस्तार प्राप्त हुआ।
आज इसी धर्मशाला के भीतर श्रीमती अलका जैन द्वारा 14 मार्च 2017 को अपने पति अक्षय कुमार जैन की स्मृति में फिजियोथैरेपी सेंटर भी स्थापित है, जिसका संचालन मंदिर और जैन समाज करता है। धर्मशाला के भवन का उपयोग सुख-दुख के कार्यक्रमों में जैन समाज द्वारा द्वारा किया जाता है।
पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर ‘बाबू आनंद कुमार जैन मार्ग’ पर स्थित है। इस आशय का एक सुंदर काला पत्थर जैन मंदिर के निकट लगा हुआ है। यद्यपि पुराना नाम ‘फूटा महल’ अधिक प्रचलित है।
मंदिर का प्रवेश द्वार जमीन से काफी ऊंचा है और कुछ सीढ़ियां चढ़कर बड़े-बड़े अक्षरों में प्रवेश द्वार के निकट ‘दिगंबर जैन मंदिर’ लिखा हुआ है। मंदिर की भव्यता मन को मोहने वाली है। जूते-चप्पल बाहर उतार कर ही मंदिर परिसर के भीतरी द्वार से प्रवेश करने की अनिवार्यता है। गर्भगृह में जाने के लिए ‘मोजे’ पहनने की अनुमति नहीं है। यद्यपि ड्रेस कोड तो कोई लागू नहीं है, लेकिन फिर भी शालीन वस्त्रों में ही मंदिर परिसर में प्रवेश की अपेक्षा मंदिर संचालकों द्वारा भक्तजनों से की गई है।
मंदिर के भीतर एक पुस्तकालय भी है। कई अलमारियों में पुस्तकें रखी गई हैं ,जो शीशे के भीतर से चमक रही हैं।
पुस्तकों का उपयोग यही होता है कि उन्हें पढ़ा जाए और उसमें लिखे हुए को जीवन में धारण किया जाए।
पुस्तकों का पाठ
पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर, फूटा महल की एक विशेषता यह भी है कि यहां कई महिलाओं को हमने एक कक्ष में बैठकर पुस्तकों का पाठ करते हुए देखा। यह लिखे हुए को जीवन में उतारने की प्रक्रिया है।
भक्ति भाव से जैन समाज के अनेक लोग भगवान पार्श्वनाथ जी की प्रतिमाओं के सम्मुख पूजन करते हुए देखे गए। बहुत भीड़ तो नहीं थी, लेकिन दस-बारह लोग भी अगर किसी मंदिर में जाकर उच्च आदर्श की स्थापना के लिए साधना करते हों ;तो यह बड़ी बात होती है। शांत और दिव्य चेतना से ओतप्रोत पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर का भीतरी वातावरण किसी भी व्यक्ति को आध्यात्मिक लोक में विचरण करने के लिए प्रेरित कर सकता है। जैन धर्म के महान तीर्थंकरों ने मनुष्य मात्र को मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ने का जो संदेश दिया, उस राह पर न केवल जैन समाज अपितु संपूर्ण मानवता को पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर, फूटा महल, रामपुर से आज वह संदेश चारों दिशाओं में गहरी आस्था के साथ प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है। यह मंदिर रामपुर के लिए एक महान आध्यात्मिक निधि है।
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संदर्भ: पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर, फूटा महल, रामपुर में दिनांक 27 मई 2024 सोमवार को लेखक द्वारा भ्रमण एवं दर्शन के आधार पर
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14) श्री शक्तिपीठ दुर्गा माता मंदिर, सिविल लाइंस, रामपुर
रामपुर रियासत के विलीनीकरण के पश्चात सिविल लाइंस में अगर कोई दुर्गा माता जी का मंदिर भक्तों को आकृष्ट करता रहा है तो वह श्री शक्तिपीठ दुर्गा माता मंदिर ही है। रेलवे स्टेशन के ठीक सामने गली में थोड़ा चलते ही दाहिनी ओर एक विशाल द्वार है, जिसके भीतर प्रवेश करने पर मंदिर सज-धज के साथ उपस्थित दिखाई देने पड़ता है।
मंदिर के प्रवेश द्वार के सामने माता की चुनरी आदि पूजा सामग्री दुकानों पर सजी हुई है। यह एक चलता फिरता और भारी भीड़ वाला बाजार है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक तरफ फूलमालाएं बेचने वाला अपनी टोकरी सजे हुए था। भीतर पीतल का एक विशाल घंटा दुर्गा माता की प्रतिमा के ठीक सामने लटक रहा था, जिसके बजाने से मंदिर का संपूर्ण वातावरण अलौकिकता से भर जाता है। विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियां भी इसी परिसर में सुशोभित हैं।
मुख्य मंदिर के निकट ही हमें सुसज्जित आसन पर विराजमान श्री महंत प्रेम गिरि जी के दर्शन हुए। आप तेजस्वी व्यक्तित्व हैं। अध्यात्म के साधक हैं। जिस आसन पर आप विराजमान थे, उसके पीछे न केवल आपका चित्र वर्तमान महंत के रूप में आपके पद और प्रतिष्ठा को प्रमाणिकता के साथ घोषित कर रहा है अपितु आपकी महंत परंपरा के स्वनामधन्य आध्यात्मिक संतों से भी परिचय कर रहा है।
मंदिर में लिखित शिलालेख तथा बोर्ड
निम्न प्रकार से ऐतिहासिक तथ्य वर्णित कर रहे हैं :
महंत श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा, हनुमान धाम, काशी ट्रस्ट। सोमवार गिरि महाराज, 13 मढ़ी वर्तमान महन्त प्रेमगिरि थानापति 13 मढ़ी श्री शक्ति पीठ दुर्गा माता मन्दिर, सिविल लाइन्स, रामपुर (उ.प्र)
ब्रह्मलीन श्री महन्त जमना गिरि जी
काशी स्थानाधिपति (जूना अखाड़ा की पुण्य स्मृति में श्री सोमवार गिरी की शुभ सम्मति से श्री बी. एन. सिंह (डिस्ट्रिक्ट जज) द्वारा निर्माण 18 अप्रैल 1988 को करवाया गया।
॥ श्रीदत्त भगवते नमः ।। ॥ ब्रह्मलीन एवं परंम पूज्य ।।
श्री श्री 108 महन्त श्री केदार गिरि जी महाराज की पुण्य स्मृति में उनके शिष्य महन्त सोमवार गिरि जी ने अपने आज्ञाकारी भक्त श्री ओंकारनाथ मेहता (चीफ इंजिनियर) के पूर्ण सहयोग द्वारा जून 1987 में इस प्रवेश द्वार का निर्माण करवाया
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15) राधा-कृष्ण मंदिर, किला कैंप, रामपुर: जिसकी प्राचीन मूर्तियॉं पाकिस्तान से लाई हुई धरोहर हैं
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615 451
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लेखन तिथि: 16 अप्रैल 2024 मंगलवार
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किला कैंप से अभिप्राय किले की दीवार से भीतर जाकर बनाई गई उस कॉलोनी से है, जिसमें 1947 के भारत विभाजन के पश्चात पाकिस्तान से आए हुए हिंदू शरणार्थियों को तत्कालीन नवाबी शासन द्वारा रहने की सुविधा प्रदान की गई थी। यहां जो लोग पाकिस्तान से आए, वह अपनी जमीन-जायदाद तथा आजीविका के सारे अवसरों को खोकर अपनी जान बचाकर भारत आए थे। विपरीत परिस्थितियों में कोई भी सामान साथ में लाना कठिन था। केवल प्राणों की रक्षा ही एकमात्र उद्देश्य था। जैसे-तैसे भारत में आकर शरण लेने के पश्चात यह लोग कुरुक्षेत्र से होते हुए रामपुर आए।
सिर छुपाने की जगह जब किला कैंप में मिली, तो अपना सामान खोलकर जिस बहुमूल्य वस्तु को इन लोगों ने पूरी सजधज के साथ अपने प्रेरणा स्रोत के रूप में किला कैंप में स्थापित किया; वह राधा कृष्ण की प्राचीन मूर्तियां थीं । किला कैंप में राधा कृष्ण मंदिर का निर्माण करके राधा कृष्ण की भक्ति की अविराम धारा इन लोगों ने प्रवाहित की।
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बड़ा राधा कृष्ण मंदिर, किला कैंप
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किला कैंप के प्रवेश द्वार से जब हम भीतर प्रवेश करते हैं तो बाहर किले की ऊंची दीवारें दवा बन जाती हैं जब स्वाधीनता के प्रभात में राधा कृष्ण की विशाल मूर्तियॉं मंदिर का निर्माण करके पुनर्स्थापित हुई थीं। पुनर्स्थापना शब्द का प्रयोग इसलिए आवश्यक है, क्योंकि यह मूर्तियां अभिभाजित भारत के पाकिस्तान क्षेत्र में पूजी जाती रही थीं।
पाकिस्तान के जिला मियां वाली, तहसील बख्तर में पंडित विद्याधर जी सरपंच थे । राधा कृष्ण के उपासक थे। मूर्तियां उनके द्वारा पूजी जाती थीं । जब पाकिस्तान से भाग कर रामपुर आए तो उनके सामान में सबसे बहुमूल्य सामग्री राधा कृष्ण की मूर्तियॉं ही थीं ।कृष्ण जी की मूर्ति गहरे काले पत्थर की है। उतना ही गहरा काला पत्थर जो अयोध्या में रामलला की मूर्ति का है। कृष्ण जी के हाथों में बांसुरी सुशोभित है। कृष्ण जी के बॉंई ओर राधा जी की श्वेत मूर्ति शोभायमान है।
पंडित विद्याधर जी के पुत्र पंडित नरेंद्र नाथ तथा पौत्र दिनेश कुमार शर्मा मंदिर में मंजीरे बजाते हुए भजन करने में तल्लीन हैं। एक महिला सुंदर कंठ से भजन गा रही थीं । उनका साथ कुछ अन्य महिलाएं दे रही थीं । बैठने की अच्छी व्यवस्था थी। जमीन पर भी बिछाई थी। कुछ कुर्सियां थीं। मंदिर परिसर साफ सुथरा था। पंडित विद्याधर जी का ब्लैक एंड व्हाइट फोटो दीवार पर थोड़ी ऊंचाई पर लगा हुआ था। विभिन्न देवी देवताओं की आरतियॉं दीवार पर अंकित थीं ।
पंडित विद्याधर जी के पुत्र पंडित नरेंद्र नाथ जी से जब हमने पूछा कि राधा कृष्ण की यह मूर्तियां कितनी पुरानी रही होगी ? तब उन्होंने बताया कि भारत विभाजन के समय उनके पिताजी इन मूर्तियों को सुरक्षित ढंग से पाकिस्तान से भारत लेकर आए थे। पाकिस्तान में यह मूर्तियां कितने समय से पूजा के काम में लाई जा रही थीं, इसका ठीक ठीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इस बारे में कभी कोई चर्चा भी नहीं हुई। पंडित नरेंद्र नाथ जी और उनके पुत्र दिनेश कुमार शर्मा जी से बातचीत करने पर इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि कम से कम एक शताब्दी पुरानी तो यह मूर्तियां निश्चय ही हैं । इससे अधिक प्राचीन इतिहास तो संभवतः पंडित विद्याधर जी ही बता सकते थे। अब वह इस संसार में नहीं हैं । पूर्वजों की धार्मिक धरोहर को पाकिस्तान से लेकर भारत के रियासत जिले रामपुर में सहेज कर रखने के लिए हमने पंडित विद्याधर जी की पावन स्मृतियों को प्रणाम किया।
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छोटा राधा कृष्ण मंदिर, किला कैंप
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पंडित विद्याधर जी द्वारा स्थापित राधा कृष्ण मंदिर किला कैंप का अकेला मंदिर नहीं है। एक और राधा कृष्ण मंदिर भी किला कैंप के भीतर गली में मुड़कर हमारे देखने में आया। इसमें भी राधा कृष्ण जी की मूर्ति स्थापित है।
यहां पर पंडित प्रेम शर्मा जी से भेंट हुई। आप मंदिर की देखभाल करते हैं। मंदिर के भीतर स्वच्छता देखते ही बनती है। आपसे बातचीत करने पर पता चला कि आपके ताऊजी पंडित गुलीचंद जी राधा कृष्ण की इन मूर्तियों को भारत विभाजन के समय पाकिस्तान से भाग कर आते समय अपने साथ लाए थे। कुरुक्षेत्र से होते हुए रामपुर में किला कैंप में आपको शरण मिली। रियासती शासन था। उचित स्थान महसूस करके पंडित गुली चंद जी यहीं पर बस गए। राधा कृष्ण मंदिर का निर्माण किया। 1991 में पंडित गुली चंद जी की मृत्यु हुई ।आप पाकिस्तान के बन्नू शहर में निवास करते थे।
राधा कृष्ण की मूर्ति आकार में काफी छोटी है, लेकिन श्रृंगार में कोई कमी नहीं है। कृष्ण जी की मूर्ति के दोनों हाथों में मुरली सुशोभित है। राधा और कृष्ण दोनों के गले में मोतियों की सुंदर मालाएं हैं। गुलाबी वस्त्रों का श्रृंगार नयनाभिराम है। कृष्ण जी के सिर पर मुकुट है। मोर पंख भी है। मंदिर में देवी जी की विशाल मूर्ति है। हनुमान जी की भी बड़ी प्रतिमा है।
मंदिर परिसर में ही स्वामी श्री लाल जी महाराज का चित्र लगा हुआ है। पंडित प्रेम शर्मा जी ने बताया कि उनके परिवार में परंपरा से स्वामी श्री लाल जी महाराज के प्रति आस्था का भाव विद्यमान रहा है। सिंध प्रांत में स्वामी श्री लाल जी महाराज की काफी मान्यता है। इस परंपरा का निर्वहन किला कैंप में आपके चित्र की उपस्थिति के द्वारा प्रमाणित हो रहा है।
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शिव मंदिर, किला कैंप
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एक मंदिर किला कैंप में प्रवेश करते ही बिल्कुल ठीक सामने है। यहॉं शिवलिंग स्थापित है। इस मंदिर की संरचना नवीन है। दीवारों पर देवी देवताओं की मूर्तियां हैं। इस शिव मंदिर में शिवलिंग के पास ही नंदी की सुंदर अलंकृत मूर्ति स्थापित है। दीवारों पर गणेश जी तथा दुर्गा जी की मूर्तियां हैं। एक पोस्टर भी है, जिस पर रामचरितमानस से उद्धृत चौपाइयां लिखी हुई हैं।मंदिर परिसर साफ-सुथरा और भव्य है।
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दुर्गा मंदिर, किला कैंप
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इसी तरह एक मंदिर किला कैंप के भीतर जाकर और है। यहां पर भी देवी देवताओं के चित्र सुशोभित हैं। एक चित्र में सिंह पर सवार दुर्गा जी का सौम्य रूप जहां विराजमान है, तो वहीं दूसरे चित्र में देवी दुर्गा महाकाली के रूप में देखी जा सकती हैं। उनके गले में मंडों की माला सुशोभित है। यह चित्र राक्षसी शक्तियों पर विजय प्राप्त करने की घोषणा कर रहा है।
मंदिर के द्वार पर खुला हुआ ताला लटका था। पूछने पर पता चला कि बंदर खुले दरवाजे से अंदर आ जाते हैं , जिससे बचने के लिए यह व्यवस्था की गई है। अन्यथा मंदिर के द्वार खुले रहते हैं।
किला कैंप और उसके मंदिर आजादी के बाद की संरचना हैं । यह इस बात के द्योतक हैं कि व्यक्ति कितनी भी विपरीत परिस्थितियों में क्यों न चला जाए, यहां तक कि उसे जान बचाने के लिए भी क्यों न भागना पड़े; लेकिन वह अपने साथ अपने आराध्य देव को हृदय में बसा कर अवश्य चलता है । पाकिस्तान से भाग कर आए शरणार्थियों ने किला कैंप को न केवल एक सुंदर कॉलोनी में बदल दिया, बल्कि यहां पाकिस्तान से लाई गई राधा कृष्ण की सुंदर और प्राचीन मूर्तियों को मंदिर बनाकर उसमें स्थापित करके अपनी प्रबल आस्था को उच्च स्वर प्रदान किया है।
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