रखो कर्म में आस्था
रखो कर्म में आस्था
(आ० कवि श्री दीपक शुक्ला जी
की चार पंक्तियाँ सम्मिलित हैं)
हम हमारे ही हाथों ठगाते रहे !
हम अपने ही मन का गाते रहे !
हमें कर्म के मर्म का ज्ञान न था,,
हम अपने भाग्य पर इतराते रहे !
भाग्य को ही सदा गुनगुनाते रहे !
भाग्य पर कर भरोसा मुस्काते रहे !
कर्म की कीमत का भान न था,,
बिन साधे हम तो तीर चलाते रहे !!
सुख – चैन की रोटी तो खाते रहे !
बाप का माल यारों में लुटाते रहे !
जिंदगी को मौज-मस्ती भर समझा,,
बिछौने पर आराम फरमाते रहे !!
हसरतों को गले से लगाते रहे !
हम नये-नये सपने सजाते रहे !
कर्म में न दिखाई कभी आस्था,,
अब इस उम्र में आँसू बहाते रहे !!
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दिनेश एल० “जैहिंद”
25. 03. 2017