योगी बनाम संन्यासी
संन्यासी कौन है ?
कौन है योगी ?
‘कर्मफल’ की चिन्ता से मुक्त
‘कर्तव्य कर्म’ में अग्रसर
संन्यासी है, योगी है,
जो कर्म करता है
अनवरत
‘मोक्ष’ की प्राप्ति तक.
‘आत्मा’ का उद्धार ‘आत्मा’ से
क्यों आवश्यक है ?
क्योंकि-
‘आत्मा’ ही बन्धु है
और वही शत्रु भी
‘आत्मा’ द्वारा ‘आत्मा’ पर विजय
‘बन्धु होने का परिचायक है
और विपरीत स्थिति
‘शत्रु’ होने का.
यह ‘आत्मा’ ही है
जो कारण है
‘बन्धन’ और ‘मोक्ष’ का
‘आत्मा’ पर विजय
माध्यम है
‘सर्वशक्तिमान’ को अपने में
समाहित करने का
और ऐसा ‘योगी’
प्राप्त करता है
‘निर्वाण’ की पराकाष्ठा
‘शान्ति’ को.
‘योगी’ आसक्त नहीं होता
इन्द्रियों के अर्थ में
किसी भी अर्थ में
वह प्रशान्त मन
रजोगुणरहित, निष्पाप
और ब्रह्मरूप होता है
जो भागी बनता है
अन्ततः
उत्तम सुख का.