मोह की मिट्टी —-
मुझे और मोह में मत रोपो
पत्ता बन रह जाने दो
जितना रोपा जा चुका हूँ
उतना दुख सहला रहा है
आज भी अश्रु कर रहे हैं पोषित |
अगर देख सको तो देखो
आंखों का क्रंदन
अगर सुन सको तो सुनो
गहरी चुप रात में हृदय का स्पंदन
जो अपने नियमों के विरुद्ध
ह्रदय की निर्धारित ऊँची-नीची रेखाओं को
सीध में खींचना चाह रहा है |
ढूँढ सको तो ढूँढो
मुझे ताकते हुए गूंगा आकाश
जो उत्तर में बरसा जाता है
बिलखती बूँदें |
मोह ध्वस्त करता है
जाग को, देहरी पर
अनाथ प्रतीक्षा को |
मोह भींच लेता है
श्वास को —- ठहाकों को |
व्याकुल उमस भरता है
ह्रदय के चीखते मौन में |
मोह का अंधड़
खटखटाता है किवाड़
हर बार भरम से दरवाज़ा खोला जाता है
क्योंकि
अव्यवस्थित आस लगाए बैठी है
बंद कमरे की सिटकनी
जिसे खिड़की से बाहर झांकने की
अनुमति नहीं
इसलिए
मुझे और फलना फूलना नहीं
मुझे कोंपलों की प्रतीक्षा नहीं
मुझे पृथ्वी में जड़े रहने दो
मिट्टी से बतियाने दो
और मोह में मत रोपना
मैं सूख कर झड़ जाऊँगा |