मोहताज
कितने असहाय नजर आती है , वो
कितने अहसास लिखूँ, डर लगता है।
कही वक्त का लम्हा घायल ना हो जाए आज ।
युग बदला , चारों ओर परिवर्तन की पुकार है।
दिखाई देती भी ,देती भौतिक परिवर्तन ।
पर सब बेकार ।
अस्मत लुटाए भी वो आज सिर्फ मोहताज ।
निर्वस्त्र करने बड़ा वर्ग ही तैयार है।
व्यापार ही जादा है।
कितनी शर्मनाक है ,
ये लत हैं या पैसे ।
या दोनों का काफी ख्याल हैं ।
व्यक्ति,शिकार भी शिकारी भी ।
सुख की चाह में,
पैसों के पीछे पागल हैं ।
व्यक्ति मानसिक रूप में घायल हैं आज |
बिकती हैं तन
छलनी होता है मनुष्य मन
वो आज भी वस्तु है ,
विषयानंद के
बस नजर में,
भोगने की चीज।
कैसी ये कामना हैं।
जिससे घायल
मोहताज हैं वासना । – डॉ. सीमा कुमारी ,बिहार
(भागलपुर ) दिनांक–6-1-022 का स्वरचित रचना हैं मेरी जिसे आज प्रकाशित कर रही हूँ ।